Book Title: Tattvagyan Pathmala 1
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 42
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates जिज्ञासु समझाइये न ? प्रवचनकार - सुनो! मैं इन्हें पृथक्-पृथक् समझाता हूँ। समझने का यत्न करो, अवश्य समझ में आयेगा । अभी पूरी तरह समझ में आया नहीं, कृपया विस्तार से १. औपशमिक भाव (आत्मा की मुख्यता से ) आत्मा के स्वसन्मुख पुरुषार्थरूप शुद्ध परिणाम से जीव के श्रद्धा तथा चारित्र सम्बन्धी भावमल दब जाने रूप उपशामक भाव होता है, उसको औपशमिक भाव कहते हैं और उसी समय दर्शनमोहनीय तथा चारित्रमोहनीय कर्म का भी स्वयं फलदानसमर्थरूप से अनुद्भव होता है, उसको कर्म का उपशम कहते हैं । ( कर्म की मुख्यता से) दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय कर्म का फलदानसमर्थरूप से अनुभव होना, वह कर्म का उपशम है और ऐसे उपशम से युक्त जीव का भाव, वह औपशमिक भाव है। २. क्षायिक भाव आत्मा के स्वसन्मुख पुरुषार्थ से किसी गुण की अवस्था में अशुद्धता का सर्वथा क्षय होना अर्थात् पूर्ण शुद्ध अवस्था का प्रगट होना, सो क्षायिक भाव है। उस ही समय स्वयं कर्मावरण का सर्वथा नाश होना सो कर्म का क्षय है। ३. क्षायोपशमिक भाव ( आत्मा की मुख्यता से ) धर्मी जीव को स्वसन्मुख पुरुषार्थ से श्रद्धा और चारित्र की प्रांशिक शुद्ध अवस्था होती है, उसको जीव के श्रद्धा और चारित्र की अपेक्षा से क्षायोपशमिक भाव कहने में आता है और उसी समय दर्शनमोहनीय तथा चारित्रमोहनीय कर्मों का स्वयं फलदानसमर्थरूप से उद्भव तथा अनुद्भव होता है, उसको उस कर्म का क्षयोपशम कहते हैं। ( कर्म की मुख्यता से) दर्शनमोहनीय और चारिमोहनीय कर्मों का फलदानसमर्थरूप से उद्भव तथा अनुद्भव होता है, उसको उस कर्म का क्षयोपशम कहते हैं, और उससे युक्त जीव की श्रद्धा और चारित्र सम्बन्धी अवस्था होती है, उसको जीव के श्रद्धा और चारित्र का क्षायोपशमिक भाव कहने में आता है। पंचास्तिकाय संग्रह, गाथा ५६ १ ३९ Please inform us of any errors on rajesh@Atma Dharma.com

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