Book Title: Tattvagyan Pathmala 1
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 18
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates लक्षण और लक्षणाभास प्रवचनकार - किसी भी वस्तु को जानने के लिए उसका लक्षण (परिभाषा) जानना बहुत आवश्यक है, क्योंकि बिना लक्षण जाने उसे पहिचानना तथा सत्यासत्य का निर्णय करना सम्भव नहीं है। वस्तुस्वरूप के सही निर्णय बिना उसका विवेचन असम्भव है; यदि किया जायगा तो जो कुछ भी कहा जायगा, वह गलत होगा। अतः प्रत्येक वस्तु को गहराई से जानने के पहिले उसका लक्षण जानना बहुत जरूरी है। जिज्ञासु - लक्षण जानना आवश्यक है - यह तो ठीक है, पर लक्षण कहते किसे हैं ? पहले यह तो बताइये। प्रवचनकार - तुम्हारा प्रश्न ठीक है। किसी भी वस्तु का लक्षण जानने से पहिले लक्षण की परिभाषा जानना भी आवश्यक है, क्योंकि यदि हम लक्षण की परिभाषा ही न जानेंगे तो फिर विवक्षित वस्तु का जो लक्षण बनाया गया है, वह सही ही है - इसका निश्चय कैसे किया जा सकेगा। __ अनेक मिली हुई वस्तुओ (पदार्थों ) में से किसी एक वस्तु (पदार्थ) को पृथक् करने वाले हेतु को लक्षण कहते है। जैसा कि अकलंकदेव ने राजवार्तिक में कहा है : " परस्पर मिली हुई वस्तुओं में से कोई एक वस्तु जिसके द्वारा अलग की जाती है, उसे लक्षण कहते हैं। "२ जिज्ञासु - और लक्ष्य ? प्रवचनकार - जिसका लक्षण किया जाय, उसे लक्ष्य कहते हैं। जैसे-जीव का लक्षण चेतना है, इसमें 'जीव' लक्ष्य हुआ और 'चेतना' लक्षण। लक्षण से जिसे पहचाना जाता है, वही तो लक्ष्य है। लक्षण दो प्रकार के होते हैं-यात्मभूत लक्षण और अनात्मभूत लक्षण। १ “व्यतिकीर्णवस्तुव्यावृत्तिहेतुर्लक्षणम्।” -न्यायदीपिका : वीर सेवा मंदिर, सरसावा , पृष्ठ ५ २ “परस्परव्यतिकरे सति येनाऽन्यत्वं लक्ष्यते तल्लक्षणम्।" -न्यायदीपिका : वीर सेवा मन्दिर, सरसावा, पृष्ठ ६ Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com

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