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मास में ४ बार उपवास कर लेने मात्र से ही चौथी प्रतिमाधारी श्रावक नहीं हो जाता तथा केवल भोजन नहीं करने का नाम उपवास नहीं है। क्योंकि :
कषायविषयाहारत्यागो यत्र विधीयते ।
उपवासः स विज्ञेयः शेषं लंघनकं विदुः ।। जहाँ कषाय, विषय, आहार तीनों का त्याग हो वह उपवास है, शेष सब लंघन है।
५. सचित्तत्याग प्रतिमा जो सचित्त भोजन तजै, पीवै प्रासुक नीर ।
सो सचित्त त्यागी पुरुष, पंच प्रतिज्ञा गीर ।।२ पांचवीं प्रतिमा वाले साधक की आत्मलीनता चौथी प्रतिमा से भी अधिक होती हैं, अतः आसक्तिभाव भी कम हो जाता है। शरीर की स्थिति के लिए भोजन को लेने का भाव आता है, लेकिन सचित भोजन-पान करने का विकल्प नहीं उठता; अतः यह सचित्त भोजन त्याग कर देता है और प्रासुक पानी काम में लेता है। पाँचवी प्रतिमाधारक श्रावक की जो प्रांतरिक शुद्धि है, वह निश्चय प्रतिमा है और मंद कषायरूप शुभ भाव तथा सचित्त भोजन-पान का त्याग व्यवहार प्रतिमा हैं।
जिसमें उगने की योग्यता हो - ऐसे अन्न एवं हरी वनस्पति को सचित्त कहते हैं। ३
६. दिवामैथुनत्याग प्रतिमा जो दिन ब्रह्मचर्य व्रत पालै, तिथि आये निशिदिवस संभालै।
गहि नव वाड़ करै व्रत रक्षा, सो षट् प्रतिमा श्रावक प्रख्या।। १ मोक्षमार्ग प्रकाशक : पण्डित टोडरमल , पृष्ठ २३१ २ नाटक समयसार : बनारसीदास, चतुर्दश गुणस्थानाधिकार; छंद ६४ ३ रत्नकरण्डक श्रावकाचार : प्राचार्य समन्तभद्र, श्लोक १४१ ४ नव वाड़ :- १. स्त्रीयों के समागम में न रहना, २. रागभरी दृष्टि से न देखना, ३. परोक्ष
में (छुपकर) संभाषण, पत्राचार आदि न करना, ४. पूर्व में भोगे भोगों का स्मरण नहीं करना, ५. कामोत्पादक गरिष्ठ भोजन नहीं करना, ६. कामोत्पादक श्रृंगार नहीं करना, ७. स्त्रीयों के आसन, पलंग आदि पर नहीं सोना, न बैठना, ८. कामोत्पादक कथा, गीत आदि नहीं सुनना, ९. भूख से अधिक भोजन नहीं करना। नाटक समयसार : बनारसीदास, चतुर्दश गुणस्थानाधिकार, छंद ६५
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