Book Title: Tattvagyan Pathmala 1
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 38
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates जा सकता है? जैसे 'ज्ञान' प्रात्मा का एक गुण है, अतः ज्ञान की प्राप्ति चेतनात्मा में ही संभव है, जड़ में नहीं; उसी प्रकार 'सुख' भी आत्मा का एक गुण है, जड़ का नहीं। अतः सुख की प्राप्ति आत्मा में ही होगी, शरीरादि जड़ पदार्थों मे नहीं। जिस प्रकार यह आत्मा स्वयं को न जान कर अज्ञान ( मिथ्या ज्ञान) रूप परिणमित हो रहा है; -उसी प्रकार यह जीव स्वयंसुख की प्राशा से पर-पदार्थों की ओर ही प्रयत्नशील है व यही इसके दुःख का मूल कारण है। इसकी सुख की खोज की दिशा ही गलत है। दिशा गलत है, अतः दशा भी गलत ( दुखः रूप) होगी ही। सच्चा सुख पाने के लिए हमें परोन्मुखी दृष्टि छोड़कर स्वयं को (आत्मा को) देखना होगा, स्वयं को जानना होगा, क्योंकि अपना सुख अपनी आत्मा में है। आत्मा अनंत आनंद का कंद है, आनन्दमय है; अतः सुख चाहने वालों को आत्मोन्मुखी होना चाहिए। परोन्मुखी दृष्टि वाले को सच्चा सुख कभी प्राप्त नहीं हो सकता। सच्चा सुख तो आत्मा द्वारा अनुभव की वस्तु है; कहने की नहीं, दिखाने की भी नहीं। समस्त पर-पदार्थों से दृष्टि हटाकर अन्तर्मुख होकर अपने ज्ञानानन्द स्वभावी आत्मा में तन्मय होने पर ही वह प्राप्त किया जा सकता है। चूंकि आत्मा सुखमय है, अतः आत्मानुभूति ही सुखानुभूति है। जिस प्रकार बिना अनुभूति के आत्मा प्राप्त नहीं किया जा सकता, उसी प्रकार बिना आत्मानुभूति के सच्चा सुख भी प्राप्त नहीं किया जा सकता। गहराई से विचार करने पर यह प्रतीत होता है कि प्रात्मा को सुख कहीं से प्राप्त नहीं करना है क्योंकि वह सुख से ही बना है, सुखमय ही है, सुख ही है। जो स्वयं सुखस्वरूप हो, उसे सुख क्या पाना ? सुख पाने की नहीं, भोगने की वस्तु है, अनुभव करने की चीज है। सुख के लिए तड़पना क्या ? सुख में तड़पन नहीं है, तड़पन मे सुख का प्रभाव है, तड़पन स्वयं दुःख है; तड़पन का प्रभाव ही सुख है। इसी प्रकार सुख को क्या चाहना ? चाह स्वयं दुखरूप है; चाह का प्रभाव ही सुख है। सुख क्या हैं ?,' ‘सुख कहाँ है ?', वह कैसे प्राप्त होगा?' इन सब प्रश्नों का एक ही उत्तर है, एक ही समाधान है; और वह है प्रात्मानुभूति। उस आत्मानुभूति को प्राप्त करने का प्रारम्भिक उपाय तत्त्वविचार है। पर ध्यान रहे वह प्रात्मानुभूति अपनी प्रारम्भिक भूमिका-तत्त्वविचार का भी अभाव करके उत्पन्न होती है। ‘में कौन हूँ ? ' 'आत्मा क्या है ?' और 'प्रात्मानुभूति कैसे प्राप्त होती है ? ' ये पृथक् विषय हैं; अतः इन पर पृथ्क से विवेचन अपेक्षित है। ३५ Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com

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