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कुछ मनीषी इससे आगे बढ़ते है और कहते हैं - "भाई, वस्तु (भोगसामग्री) में सुख नहीं है, सुख-दुःख तो कल्पना में है। वे अपनी बात सिद्ध करने को उदाहरण भी देते हैं कि एक आदमी का मकान दो मंजिल का है, पर उसके दाहिनी ओर पाँच मंजिला मकान है तथा बायीं ओर एक झोंपड़ी है। जब वह दायीं ओर देखता है तो अपने को दुःखी अनुभव करता हैं और जब वह बायीं ओर देखता है तो सुखी; अतः सुख-दुःख भोग-सामग्री में न होकर कल्पना में है। वे मनीषी सलाह देते हैं कि यदि सुखी होना है तो अपने से कम भोग-सामग्री वालों की ओर देखो, सुखी हो जानोगे। यदि तुम्हारी दृष्टि अपने से अधिक वैभव वालों की ओर रही तो सदा दुःख का अनुभव करोंगे।”
सुख तो कल्पना में है, सुख पाना हो तो झोंपड़ी की तरफ देखो, अपने से दीन-हीनों की तरह देखो, यह कहना असंगत है; क्योंकि दुखियों को देखकर तो लौकिक सज्जन भी दयार्द्र हो जाते हैं। दखियों को देखकर ऐसी कल्पना करके अपने को सुखी मानना कि मैं इनसे अच्छा हूँ, उनके दुख के प्रति अकरूण भाव तो है ही, साथ ही मान कषाय की पुष्टि में संतुष्टि की स्थिति भी है। इसे सुख कभी नही कहा जा सकता। सुख क्या झोंपडी में भरा है, जो उसकी ओर देखने से आ जावेगा ? जहाँ सुख है जब तक उसकी ओर दृष्टि नहीं जावेगी, तब तक सच्चा सुख प्राप्त नहीं होगा।
सुखी होने का यह उपाय भी सही नही है, क्योंकि यहाँ ‘सुख क्या है?' इसे समझने का यत्न नहीं किया गया है, वरन् भोग जनित सुख को ही सुख मानकर सोचा गया है। ‘सुख कहाँ है ?' का उत्तर ‘कल्पना में हैं' दिया गया है। ‘सुख कल्पना में है' का अर्थ यदि यह लिया जाय कि सुख काल्पनिक है, वास्तविक नहीं - तो क्या यह माना जाय कि सुख की वास्तविक सत्ता है ही नहीं, पर यह बात संभवतः आपको भी स्वीकृत नहीं होगी। अतः स्पष्ट है कि भोग-प्राप्ति वाला सुख, जिसे इन्द्रिय-सुख कहते हैं-काल्पनिक है; तथा वास्तविक सुख इससे भिन्न है। वह सच्चा सुख क्या हैं ? मूल प्रश्न तो यह है।
कुछ लोग कहते है कि तुम यह करो, वह करो, तुम्हारी मनोकामना पूरी होगी, तुम्हे इच्छित वस्तु की प्राप्त होगी और तुम सुखी हो जानोगे। ऐसा कहने वाले इच्छाओं की पूर्ति को ही सुख और इच्छाओं की पूर्ति न होने को ही दुःख मानते हैं।
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