Book Title: Tattvagyan Pathmala 1
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 26
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates जिसकी प्रतीति (श्रद्धा) में आत्मा का सही स्वरूप आ गया हो, जिसको सत्य स्वरूप की प्रसिद्धि क्षण-क्षण बढ़ रही हो व दिन प्रतिदिन समताभाव वृद्धिंगत हो रहा हो, वह अविरत सम्यग्द्दष्टि है। उपरोक्त अनुभूति की नित्य वृद्धिंगत अप्रत्याख्यानावरण कषाय के अभावरूप अवस्था ही पंचम गुणस्थान है। चतुर्थ गुणस्थानवर्ती श्रावक को अपने आत्मा के प्रानन्द का साक्षात् निर्विकल्प अनुभव तो हो गया है, लेकिन लीन होने का पुरुषार्थ मन्द होने से वह अनुभव जल्दी-जल्दी नहीं आता एवं बहुत थोड़े काल ही ठहरता है तथा इस अवस्था में अव्रत के भाव ही रहते हैं, व्रत परिणाम नहीं हो पाते। किन्तु पंचम गुणस्थानवर्ती श्रावक को अप्रत्याख्यानरूपी प्रचारित्रभाव का यानी कषायों का स्वरूप - रमणता के तीव्र पुरुषार्थ द्वारा प्रभाव कर देने से अनुभव भी जल्दी-जल्दी आने लगता है एवं स्थिरता का काल भी बढ़ जाता है तथा परिणति में वीतरागता भी बढ़ जाती है। यही कारण है कि उस साधक जीव की संसार, देह एवं भोगों के प्रति सहज ही आसक्ति कम होने लगती है और उनके प्रति सहज उदासीनता आ जाती है। उसे उस भूमिका के अयोग्य अशुभ भावों को छोड़ने की प्रतिज्ञा लेने का भाव होता है और साथ ही साथ सहज ही ( बिना हठ के ) बाह्य आचरण में भी तदनुकूल परिवर्तन हो जाते हैं । कहा भी है: संयम अंश जग्यो जहाँ, भोग अरुचि परिणाम । उदय प्रतिज्ञा कौ भयौ, प्रतिमा ताकौ नाम ।। उपरोक्त साधक की अन्तरंग शुद्धि व बाह्य दशा किस-किस प्रतिमा में कितनी-कितनी बढ़ती जाती है, उसी को आचार्यों ने ग्यारह दर्जों (प्रतिमाओं ) में विभाजित करके समझाया है, एवं अन्तरंग शुद्ध दशा को ज्ञानधारा व साथ रहने वाले शुभाशुभ भावों को कर्मधारा कहा है। साधक जीव अपने स्वरूपस्थिरता की वृद्धि का पुरुषार्थ करता है। उसके अनुसार उसको वीतरागता की वृद्धि होती जाती है, साथ ही कुछ रागांश भी बिद्यमान रहते हैं, तदनुकूल बाह्य क्रियायें होती हैं; उन्हें व्यवहार चारित्र कहा जाता है। १ नाटक समयसार : बनारसीदास चतुर्दश गुणस्थानाधिकार, छंद ५८ २३ Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com

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