Book Title: Tattvagyan Pathmala 1
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 27
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इस प्रकार के चरणानुयोग के कथन से साधक जीव अपनी भूमिका को समझकर अपने अन्दर उठने वाले राग यानी विकल्पों को पहिचानकर स्वरूपस्थिरता को माप लेता है । प्रमुक भूमिका ( प्रतिमा ) में जिन विकल्पों (राग भावों) का सद्भाव संभव है; उसप्रकार के राग के सद्भाव को देखकर विचलित ( प्राशंकित ) नहीं होता, वरन् उनका प्रभाव करने के लिए स्वरूपस्थिरता बढ़ाने का पुरुषार्थ करता रहता हैं; साथ ही चरणानुयोग में विहित उस भूमिका में दोष उत्पन्न करने वाला रागांश अंतर में उठता है, उसे भी जान लेता है कि अंतरंग स्थिरता में शिथिलता आ जाने से इस प्रकार का राग उत्पन्न हुआ है । यह शिथिलताजन्य विकल्प ही उन व्रतों के प्रतिचार हैं। वह स्वरूपस्थिरता बढ़ाकर उन्हें दूर करने का यत्न करता है। किसी मिथ्यादृष्टि जीव को स्वरूप की यथार्थ श्रद्धा, ज्ञान व रमणता नहीं हो और मात्र कषाय की मंदता एवं तदनुकूल बाहर की क्रियायें ( हठपूर्वक ) हों यह तो संभव है; पर यह संभव नहीं कि साधक जीव को स्वरूपानन्द की अनुभूति उस-उस प्रतिमा के अनुकूल हो गई हो और उसको उस-उस प्रतिमा में निषिद्ध विकल्प अंदर में उठते रहें तथा निषिद्ध बाह्य क्रियायें होती रहें। निश्चय-व्यवहार की यही सन्धि हैं। अब प्रत्येक प्रतिमा का संक्षेप में वर्णन अपेक्षित है :१. दर्शन प्रतिमा आठ मूलगुण संग्रहै, कुव्यसन क्रिया न कोइ । दर्शन गुण निर्मल करै, दर्शन प्रतिमा सोइ ।। अन्तर्मुख शुद्धपरिणतिपूर्वक कषायमंदता से प्रष्ट मूलगुण धारण एवं सप्त व्यसन त्यागरूप भावों का सहज ( हठ बिना ) होना ही दर्शन प्रतिमा है। मद्य, मांस, मधु और पांच उदुम्बर' फल खाने का राग उत्पन्न नहीं होना अर्थात् इन वस्तुनों का त्याग करना प्रष्ट मूलगुण धारण है। जुआ खेलना, मांस खाना, मदिरापान, वेश्यागमन, शिकार करना, चोरी करना व परस्त्री रमणता सात व्यसन हैं । इनका त्याग ही सप्त व्यसन त्याग है । निरतिचार १ नाटक समयसार : बनारसीदास, चतर्दश गुणस्थानाधिकार, छंद ५९ २ बडफल, पीपलफल, ऊमर, पाकरफल, कठूमर ( गूलर ) । २४ Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com —

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