Book Title: Tattvagyan Pathmala 1
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 13
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates ५. जीव और पुद्गल के परस्पर निमित्त से अनेक क्रियायें होती हैं, उन्हें दोनों की सम्मिलित क्रिया मानता है। यह नहीं जानता कि यह जीव की क्रिया है, पुद्गल इसका निमित्त है; यह पुद्गल की क्रिया है, जीव इसका निमित्त है-ऐसा भिन्न-भिन्न भाव भासित नहीं होता। आस्रव तत्त्व सम्बन्धी भूल १. हिंसादि रूप पापास्त्रवों को तो हेय मानता है, पर अहिंसादि रूप पुण्यास्त्रवों को उपादेय मानता है; किन्तु दोनों बंध के कारण होने से हेय ही हैं। २. जहाँ वीतराग होकर ज्ञाता दृष्टा रूप रहे, वहाँ निर्बंध है, वही उपादेय है। जब तक ऐसी दशा न हो, तब तक प्रशस्तराग रूप प्रवर्तन करे; परन्तु श्रद्धा तो ऐसी रखे कि यह भी बंध का कारण है, हेय है। श्रद्धा में इसे मोक्षमार्ग माने तो मिथ्यादृष्टि ही है। ३. मिथ्यात्वादि प्रास्त्रवों के अन्तरंग स्वरूप को तो पहिचानता नहीं है; उनके बाह्य रूप को ही प्रास्त्रव मानता है। जैसे:(क) गृहीत मिथ्यात्व को ही मिथ्यात्व जानता है; परन्तु अनादि प्रगृहीत मिथ्यात्व है, उसे नहीं पहिचानता। ___ बाह्य जीवहिंसा और इन्द्रिय-मन के विषयों में प्रवृत्ति को अविरति जानता है, पर हिंसा में प्रमाद परिणति मूल है तथा विषय सेवन में अभिलाषा मूल है, उसे नहीं जानता। (ग) बाह्य क्रोधादि को ही कषाय मानता है। अभिप्राय में जो राग-द्वेष रहते हैं, उन्हें नहीं पहिचानता। बाह्य चेष्टा को ही योग मानता है। अन्तरंग शक्तिभूत योग को नहीं जानता। ४. जो अन्तरंग अभिप्राय में मिथ्यात्वादिरूप रागादिभाव हैं, वस्तुतः वे ही प्रास्त्रव भाव हैं। इनकी पहिचान न होने से प्रास्त्रव तत्त्व का भी सही श्रद्धान नहीं है। १. त्यागने योग्य २. ग्रहण करने योग्य ३. बंध का प्रभाव , ४. शुभ राग, ५. इच्छा (घ) १० Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com

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