Book Title: Tattvagyan Pathmala 1
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 15
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates (घ) अनित्यादि भावना के चिन्तवन से शरीरादिक को बुरा जान उदास होने को अनुप्रेक्षा कहता है पर उसकी उदासीनता द्वेषरूप होती है। वस्तु का सही रूप पहिचान कर भला जान राग नहीं करना, बुरा जान द्वेष नहीं करना - यह सच्ची उदासीनता है। (च) क्षुधादिक होने पर उसके नाश का उपाय नहीं करने को परिषहजय जानता है; अन्तर में क्लेशरूप परिणाम रहते है, उन पर ध्यान नहीं देता। इष्ट-अनिष्ट में सुखी-दुःखी नहीं होना व ज्ञाता-दृष्टा रहना यही - सच्चा परिषहजय है। (छ) हिंसादि के त्याग को चारित्र मानता है तथा महाव्रतादि शुभ योग को उपादेय मानता है, पर तत्त्वार्थसूत्र में प्रास्त्रवाधिकार में अणुव्रत महाव्रत को प्रास्त्रवरूप कहा है। वे उपादेय कैसे हो सकते हैं ? तथा बंध का कारण होने से महाव्रतादि को चारित्रपना सम्भव नहीं है। सकल कषाय रहित उदासीन भाव , उसी का नाम चारित्र है। मुनिराज मन्द कषायरूप महाव्रतादि का पालन तो करते हैं पर उन्हें मोक्षमार्ग नहीं मानते। निर्जरा तत्त्व सम्बन्धी भूल १. वीतराग भावरूप तप को तो जानता नहीं है, बाह्यक्रिया में ही लीन रहे, उसे ही तप मानकर उससे निर्जरा मानता है। २. उसे यह पता नहीं कि जितना शुद्ध भाव है, वह तो निर्जरा का कारण है और जितना शुभ भाव है वह बंध का कारण है। निश्चय धर्म तो वीतराग भाव है, वही निर्जरा का कारण है। मोक्ष तत्त्व सम्बन्धी भूल १. मोक्ष और स्वर्ग के सुख को एक जाति का मानता है; जबकि स्वर्गसुख इन्द्रियजन्य है और मोक्षसुख अतीन्द्रिय। २. स्वर्ग और मोक्ष के कारण को भी एक मानता है, जबकि स्वर्ग का कारण शुभ भाव है और मोक्ष का कारण शुद्ध भाव। १२ Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com

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