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तत्त्वज्ञानसागरकी रत्नराशि है. उस रत्नराशिकी कान्ति ! मात्र दया शब्दके रहस्यमें अंतर्भूत होती है. दयाकां मनमंदिरसे प्रादुर्भाव ( उत्पत्ति ) होतेही बुद्धि साम्यपणेको प्राप्त होती है. सर्व प्राणीप्रति समान भावसें देखनेवाले जीवात्माको अंतरंगमें अपना और अन्यका ऐसा विरोधी विकारका क्षय होके सर्व प्राणीप्रति आत्मभावका अनुभव झेता है. सर्व प्राणीप्रति आत्मभावना होनेसें आप संसारसागरमें एक बिंदु समान है, ऐसी बुद्धिवाला सर्व प्राणीप्रति समानता अनुभवनेवाला आत्मा अपने आपको विश्व रहस्यरूप देखकर अंतमें परम आत्मलक्ष की दृष्टि प्राप्त करके परमानंद संपत्ति संपन्न हो सकता है। जैनतत्त्वज्ञानकी ग्रंथी अपूर्व उद्देशसें रचके अपूर्व गांभीर्यता उसके निरीक्षकको बताकर परम विशुद्ध मुक्तिमार्गका प्रतिपादन करता है. जैनतत्त्वविचारके अनुयायी अनेक पुरुष पूर्वकालमें प्रगट हए थे; उन्होंने अनेक भगवद्वचनानुसार स्वरचित ग्रंथोसें जैनतत्त्वामृतकी प्रसी अपनी बुद्धिबलकी प्रबलतासें उनके समयानुसारीको दीथी. वैसे वर्तमान समयमें उन्होंके बोध हुए सद्ग्रंथोके वचन सत्वशील शास्त्राभ्यासीको वचनामृतरूपकरके दिव्यता द्रष्टव्य करते हैं. ऐसा एक महान दर्शनके अनुयायिओंने अपने तत्त्वमार्गकी जनसमुदायके अन्य धर्म सिद्धांतके सामने महत्वता प्रगट करके बतानी यह उनकी बडी भारी फरज है. परंतु कालबलके प्रबल प्रतापसें इस मार्गके अनुयायी स्वधर्मकी महत्वता जिस किसी अंशसें जानते हैं उतनीका भी उदय करनेमें अपनी उत्साहवृत्तिका उपयोग नही कर सकते हैं. इस पुस्तकका बनना इसी उपयोगकाही फल है. एसा उत्साह रहित होना कालमहात्म्यकी अपूर्व कलाका दिग्दर्शन नजर आता है. जिस दर्शनके प्रवर्तक पुरुष सर्वज्ञ थे, जिस दर्शनके मुनि (साधु) उत्तम चारित्र संपत्तिमान थे, जिस दर्शनके अनुयायी गृहस्थ त्यागयुक्त दृष्टिवाले होकर अवधि ज्ञानादि संपत्ति प्राप्त करते थे, उस दर्शनके वर्तमान समयानुगायी शास्त्र परिभाषाके पंडित होनेकी एवजमें शास्त्रशब्दके रहस्य समजने में भी प्रायः शक्तिवान नहीं है. ऐसा है तो कालके महात्म्य सिवाय और क्या कल्पना करी जावे ! अर्थात कालकी कलाही ज्ञान दृष्टिके मार्गमें ले जानेके बदले पंचेंद्रियके रसानंदमें मन कर देती है. प्रो० मेक्स मुलर आदि पाश्चात्य तत्ववेत्ता जो कि आर्य दर्शन शास्त्रके प्रायः निष्पक्षपाती निरीक्षक है, सो भी जैनदर्शनकी महत्त्वत्ता सर्वथा कबूल करते हैं; तो जैनधर्मावलंबी जैन तत्त्वशास्त्रकी महत्वता जनमंडलमें प्रगट करने के स्थानमें आपही शास्त्राध्ययन करके रहस्य समजनेमें प्रवृत्ति नहीं करते हैं। ऐसा है तो कालरूप जादुगरकी रची हुई व्यावहारिक वैभवकी जालमें जकडे हुए हैं, ऐसाही कहना पडता है.
जैनतत्त्वज्ञान संबंधी विचार व्यवहार और परमार्थकी उन्नति योजनेमें साधनभत है. तत्त्वज्ञानानुसार वर्तन करनेवालेको परमसुख करता है. रत्नत्रयिके अनुभवसें आत्मज्ञान प्राप्तकरके मुक्तिमार्गकी परासीमा स्वीकारी है. रत्नत्रयिका अनुभव, सत्देव, सत्गुरू, और सत्धर्मकी समज शिवाय प्राप्त हो नहि सकता है. आत्मस्वरूपका पूर्ण ज्ञाता आत्मस्वरूप अनुभवी सर्वज्ञ वोही सत्देव, क्रोधादि कषायोंका लय करके अंतर सत्वनिष्ठावान वैराग्य संपन्न शास्त्राभ्यासी वोही सत्गुरू, कर्ममलसें निर्मल होनेका सदुपदेश बोधक मार्ग वोही सधर्म; इस त्रिपुटीको स्वरूपके अनुभवी शास्त्राध्ययन करनेवाला रत्नत्रयि संपन्न हो
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