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प्राणीओंमें प्रत्यक्ष प्रमाणसें चेतनाका अनुभव होता है, तो भी कौनसें विशेष प्रबल प्रमाणसें ऐसा कहते हैं, यह समजना पक्षपातसें तटस्थ रहकर अवलोकन करनेवालेको कष्टसाध्य है. मनुष्यमें आत्मतत्त्व अंगीकार करके दया करनेका प्रेमपूर्वक स्विकारते हैं. इसी तरह बनसमुदायके अनेकानेक संप्रदायिको दयाका लक्ष्य आपनी भिन्न राचके अनुसार स्वीकारके वर्तन करते हैं. दयाका वाच्यार्थ और लक्ष्यार्थका भिन्न भिन्न स्वरूप सर्व दर्शनामासियाँको द्रष्टव्य होगा.
यदि निरीक्षक उच्चतम बुद्धिशाल निष्पक्षपाती और विचारविवेकसंपन्न होवेगा तो स्वाभाविक रीतिसें दयाका सर्वांशे लक्ष्यका गृहण करनेवाले दर्शनका विजय सिद्ध करके सर्वोपरि दयाके तत्त्वानुवादकी उत्तमोत्तम दिव्य प्रसादिका सुशील आत्मश्रेणीकी प्राप्तिके उत्सुक मुमुक्षुवर्गको रसास्वाद प्राप्त करावेगा यह बात नि:संदेह है. सर्वांशसें दयाका लक्ष्यार्थ प्रतिपादक दर्शन, विनय, क्षमा, ज्ञान, ध्यान, चारित्र, तप, स्वाध्याय, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, सौजन्यता, सुशीलतादिके शुद्ध स्वरुपका तारात्म्य दिखा सके यह स्वाभाविक है. क्योंकि दया यह धर्मरूप वृक्षका बीज है; सर्वागपूर्णबीज बोया जावे और शास्त्रविचाररूप जल योग्य रीतिसें शुद्ध मतिज्ञानरूप भूमिमें सेचन किया होवे तो विनयादि अन्यधर्म लक्षण अनायाससे प्राप्त होवे जिसमें आश्चर्य क्या? जैनदर्शनमें दयाका मागंसें वत्तेन करनेके अनेक द्वार है. प्रथम शास्त्राधिकारीको भी आकर्षणकारी मनोहर दयामार्ग जैनदर्शनकी भव्यतामें पूज्यता उत्पन्न कराके निरीक्षकको दया मार्गमें रसलुब्ध करनेमें सदाकाल विजयी होगा, ऐसा उत्तम शास्त्राभ्यासियोंका मानना है.
जैनदर्शनमें स्थावर प्राणियोंका पृथ्वी, पाणी, अग्नि, वायु, और वनस्पति ऐसे पांच भेद है. जंगमके द्वींद्रिय, त्रौंद्रिय, चतुरिंद्रिय, पंचेंद्रिय, ऐसे चार प्रकार परम विशुद्ध भावनाप्ने प्रतिपादन करके उन२ प्राणियोंके लक्षण दिखाकर स्वआत्माकी तरह सर्व प्राणीके आत्माको समजके उनके तरफ समानबुद्धिसे उनके आत्माको किसी प्रकारसें भी क्लेश न हो, ऐसा वर्तन करनेको उग्रशब्दज्वालाकी कांति श्रोताके हृदयमंदिरको प्रकाशित करके बांधश्रोणि सुस्थापित करी है. कीतनेक धर्मावलंबी किसी प्राणीको रोगादिसे पीडित देखकर उनकी अंतावस्था करनेमें दया मानते हैं, परंतु जैनदर्शन अनेक प्रमाणोसें ईस बातको असत्य ठहराकर कहता है कि सब प्राणिको चाहे जैसी दुःखी अवस्थामें भी जीवनकी इच्छा तीव्र होती है. जीवन कष्टके असंख्य प्रवाहोमें भी प्राणियोंको प्रीयतम होता है. अनेक तीव्र वेदनासे पीडित अंतःकरणका लक्ष तो जीवन संधि रसनेमेंही परम दृष्टीस्थान अनुभवता है, यह बात सब विचारशील मनुष्यको प्रत्यक्ष अनुभवसें ज्ञेय है. यही सिद्धांत प्रबल प्रमाण पूर्वकसर्वज्ञ श्री महावीरने प्रतिपादन किया है. स्थावर जीवात्माओंके सूक्ष्म प्रदेशमें असंख्य जीवोंका अस्तित्व स्वीकारते हैं. वनस्पतिकायके प्रत्येक और साधारण सूक्ष्म भागमें असंख्य और अनंत जीवात्माओंका अस्तित्व अनेक प्रमाणोसे सिद्ध करके दिखाया है. - सब जीव चेतना लक्षणवंत है. चेतना होवे वहां सुख दुःखका जानपणा नित्य होवे यह निर्विवाद है. जंगम जीवोंका सुख दुःखका जानपणा स्थूल दृष्टिसें देखनेसें भी लक्षित होता है. परंतु स्थावर जीवोंका ज्ञान मूक्ष्म दृष्टि सिवाय समजना दुर्लभ है. चेतना
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