________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir
(७) सिवाय वस्तुका बढना, कमी होना हो नहि सकता है. पृथ्वी आदिकी वृद्धि क्षयकी अनेक क्रियाओं अनेक नियमोसें निरंतर होती है. इस बातका सबको प्रत्यक्ष अनुभव है. यह पात देखते हैं तो घेतना सर्व द्रव्यमें व्याप्त हो रही है. यह स्वीकार करके भी चेतनको बंगसुख दुःखका वेदकपणा होना चाहिये यह समजना सामान्य बुद्धिसें मुश्किल है. स्थावर माणियोमें चेतनको अंगसुखदुःखका जानपणा विद्यमान है. तीर्थफरोंने स्थावर माणिः योंमें चार संज्ञाका माहार, शरीर, इंद्रिय, भौर श्वासोश्वास ये चार पपोत्ति अस्तित्व फरमाया है. जिनके नाम आहार, भय, मैथुन, और परिग्रह. वनस्पतिम आहार संज्ञा है, जिसमें वृद्धि होती है, भय संज्ञा है, जिससे पाषाणादि द्रव्य बीचमें आनेस दूसरे मार्गसें वृद्धि होती है, मैथुन संज्ञा होनेसें नर जातिको फरशी हुई धूली नारी जातिके वृक्षोंको स्पर्श करनेसें नारी जातिके वृक्ष नवपल्लव होकर फलते हैं. *
परिग्रह संज्ञासे नये २ परमाणुको ग्रहणकरके वृद्धि होती है. वैसेंही पृथ्वी आदमें आहारादि संज्ञाका अस्तित्व पदार्थ विज्ञानादि शास्त्रोंके अवलोकनसें अनुभवगम्य हो सकता है. स्थावर द्रव्योमें संज्ञाका अस्तित्व स्वीकारनेसें चेतना स्वीकारी जाती है. और चेतना स्वीकारनेसें ज्ञानका अस्तित्व स्वीकारना पडता है. इस संकलनासे मालूम होता है कि ज्ञातापणाकी प्रेरणासेंही संज्ञाका उद्भव होता है. ज्ञातापणा: सुखदुःखका वेदकस्वरूप होता है. स्थावरमें सुखदुःखका भोक्तापणा इस प्रकारसें संभवित होता है. जिसको सुखदुःखका ज्ञातापणा है, उसके ज्ञातापणको क्लेश न हो, इस तरहसें वत्तीव रखना यही दयाका लक्षण है. ऐसी अनुपमेय वर्णन शैलिसेंयुक्त जैनदर्शनके सिद्धांत स्थावर जंगम प्राणियोंकी दया पालनेको अनेक रीतिसे स्पष्ट करके दिखाते हैं. दयामार्गके प्रतिपादक भित्र २ लेख वैष्णवी, रामानुजी, चैतन्यमार्गो, कबीरपंथी, निमानंदी, दादुपंथी, नानकपंथी आदिके ग्रंथोमें मीलते हैं. वे लेख भनेक प्रमाणोसें पुष्ट किये हुवे हैं. तथापि स्वावर जीवात्माओंकी अनेक जिवायोनीके सूक्ष्म विवेचनयुक्त लेख सत्यनिष्ट अंतःकरणवाले बुद्धि कौशल्य शील पुरुषको जैन तत्त्व दर्शनिक शास्त्रोंके सिवाय दृष्टिगोचर कदापि नहिं होगा. तीर्थकरमणित जैन तत्त्वशास्त्रों में दया यही धर्मका रहस्य गिनकर ज्ञान, दर्शन, तप, संयम, वृत्तादिक निरूपण करके अरूपी आत्माका अवर्णनीय स्वरूप लक्षणोंद्वारा आत्मा अनात्मा (जीव अजीव) पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा बंध और मोक्ष. इन नव तत्त्वोंका अति स्फुट वर्णन दृष्टिगोचर कराके गुरुद्वारा, शास्त्राध्ययन करनेवालेको सम्यकबोधसें आत्मविचारश्रेणिकी अलौकिकतामें आनंदमय कर देता है. सम्यक्ज्ञान, सम्यदर्शन, सम्यश्चारित्ररूप रत्नत्रयि जैन
____ * युरोपियन तत्वज्ञानियोंने ईसी माफक शोध की है कि नर वृक्षके फूलादिकी रज उदकर नारि जातिके पुष्पमें प्रवेश करे, जब इस मैथुनसें नारि वृक्ष फलता है. वंध्या प्राय: दाडिमादि वृक्षके फलानेको इस इलाजको काममें लगाते है, यह शोध पांच पचास वर्षकी बताते हैं, परंतु जैनसिद्धांतमें अनादि कालसें यह बात मान्य है. सर्वज्ञप्रणित धर्ममें किस बातकी न्यूनता होवे । देखो कि मख्खनमें बहुत बारिक जीव है ऐसा एक युरोपियन विद्वानने थोडा समय हुवा शोध करके निकाला है. और ईस शोधके लिये उसका दुनीयाके विद्वानवर्ग में बहुमान हो रहा है. परंतु जैनीका एक लडंका भी जानता भौर मानता है के मख्खनमें एक अंतर्मुहूर्तमें (४८ मीनीट ) असंख्य जीव पैदा होते हैं. वासी रोटीमें, पाणीके एक बिंदूमें असंख्य जीव आजके विद्वान सुक्ष्मदर्शकयंत्र ( खर्दवान ) द्वारा देखते हैं. परंतु यह सिद्धांत जैनी अनादि कालसें मानते आये है...
For Private And Personal