________________
गा० ३-४-५ ]
(४) [ जिन भवन कराने की विधि "जिण-भवण-कारण-विही : सुद्ध भूमि दलं च कट्ठा-ऽई।
भिअगा-Sण-इ-संधाणं साऽऽसय-बुड्डी, समासेण." ॥ ३ । + जिन भवन कराने का संक्षेप में यह विधि है१. शुद्ध भूमि, २. काष्ठादिक ( शुद्ध ) पदार्थ- दल। ३. कर्म कर-मंदिर आदि के काम करने वाले कारीगर के साथ निखालस एवं ___ स्पष्ट व्यवहार से वर्तन रखना। ४. हृदय में स्व शुभ-भाव की वृद्धि ।। ३ ।।
"दव्वे भावे अ तहा सुद्धा भूमी." “पएस-5-कोला य ।
दव्वे. "5-पत्तिग-रहिया अन्नेसि होइ, भावे उ." ॥ ४ ॥ * १. शुद्ध भूमि
द्रव्य से और भाव से एवं शुद्ध भूमि दो प्रकार से देखी जाती है, + १. तपस्वी जन के निवास योग्य और हड्डी आदि मे रहित भूमि हो, वह .
द्रव्य से-शुद्ध भूमि । * २. भाव से शुद्ध भूमि
जिसमें जिन मंदिर बनवाना हो, उस भूमि के आस पास में किसी को किसी तरह के दुःख की अनुभूति न हो, और अप्रीति न हो, अ-समाधि न हो । ४ "धम्म-ऽत्यमुज्जएणं सव्वस्सा-ऽ पत्तियं न कायव्वं." ।
इय संजमो वि सेओ. इत्व य भयवं उदा-ऽऽहरणं. ॥ ५ ॥ * जो धर्म करने के लिए तैयार हुआ हो, उसका कर्तव्य है, कि-सभी
के लिए वह लेशमात्र भी अ-प्रीति के कारण भूत न हो। + संयम भी इसी से ही कल्याणकारी सिद्ध होता है, अन्यथा नहीं । (अ-प्रीति युक्त संयम भी कल्याणकारी नहीं)
इस विषय में खुद श्री महावीर वर्धमान स्वामी तीर्थकर प्रभु दृष्टान्त