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गा० १ -१६३ ]
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[ उपकार का अभाव हिंसा भी
मरण से बचा लिया, इस हेतु थोड़ा दोष होने पर भी, जीवन दे कर बहुत अंश में लाभ ही उठाया गया ।
उसी प्रकार - मिथ्यत्व कषाय-विषय लोलुपता आदि सांसारिक भावों में डूबे हुए लोगों को - धंधे, शिल्प, विवाह मर्यादा, राज्य तन्त्र आदि मार्गानुसरि मर्यादित जीवन मार्ग में स्थिर करने से - बहुत से दोषों से निवृत्त कर, बहुत से पाप से प्रजा को बचा ली है ।
ह० जिस तरह - विवाह से एक आदि पत्नी नियत रहने से पशुओं की तरह अनियत काम भोग अटक जाता ।
इस प्रकार अनुबन्ध की अपेक्षा से वह (जिन भवनादिक बनाने में होती ) हिंसा निवृत्ति प्रधान होने से, वास्तविकतया अहिंसा जाननी चाहिए ।
उसी प्रकार - यतना युक्त आत्मा से विधि पूर्वक की जाने वाली जिनपूजा आदि में होने वाली हिंसा भी तत्व से अहिंसा जाननी चाहिए ।। १६१ ॥ और दूसरा भी (जिन पूजा के विषय में ) प्रासंगिक कहा जाता है, कि"सिय, " आओवगारो ण होइ कोऽचि पुअणिज्जाणं, ।
कय
- किच्चत्तणओ, तह जयिह आसायणा चेवं ।। १६२ ।।
पूर्वपक्षकार का प्रश्न है कि- "भले ही पूजा में अहिंसा मानों, किन्तु, जिन पूजा से किसी को कोई लाभ होने वाला है ही नहीं। वे वीतराग होने से कृतकृत्य है, तो उसी प्रकार उन्हीं की पूजा करने से उसकी आशातना ही होती है। क्योंकि - पूजा करने से पूज्य का अ. कृत-कृत्य पना दिखाया जाता है । जिससे - आशातना होती है, अपमान होता है ।। १६२ ।।
ता अहिगणिवन्तीए गुणंतरं णत्थि एत्थ नियमेण ।
इय एय-गया हिंसा सदोसमो होइ णायव्वा." ।। १६३ ।।
इस कारण से पूजादिक में हिंसादि की अधिक निवृत्ति न होने से,
-
दूसरा कोई लाभ ही नहीं है । इस कारण से - पूजादि में की जाती हिंसा सदोष जाननी चाहिए, क्योंकि - उससे किसी का भी उपकार नहीं होता है" ।। १६३॥