________________
गा० १७६-१७७ ]
(८४)
[ पौरुषेय-अपौरुषेय "वह अतीन्द्रिय शक्ति पुरुषमात्र गम्य नहीं है । अतीन्द्रिय दर्शी उसका जो अतिशय है, वह आपको भी बहु सम्मत नहीं है ।
वेद वचनों का लौकिक वचनों से कुछ अंश में विधर्म्य-जुदा पना- भी देखा जाता है" ।। १७५॥
"ताणोह पोरसेआणि अ-पोरसेआणि वेय-वयणाणि ।
सग्गुब्वसि-प-मुहाणं दिट्ठो तह अत्थ-भेओऽवि.'' ॥१७६।। * "लौकिक वचनों को लोक में पौरुषेय माने गये हैं, और वेद वचनों को अपौरुषेय माने जाय, यह परस्पर वैधयं होता है ।
___ और, "स्वर्ग" "उवर्शी" इत्यादि शब्दों का अप्सरा पृथ्वी इत्यादि अर्थ भेद भी देखने में आता है। (“अप्सरा" "पृथ्वी" इत्यादि रूप अर्थ भेद भी देखने में आता है (१)" ) । १७६॥ .
_ विशेषार्थः इस कारण से-जो लौकिक शब्द है, वे ही वैदिक शब्द हैं । और जो लौकिक शब्द का अर्थ है, वह वैदिक शब्दों का भी अर्थ है ।
इससे, यह विचारणा खास कोई विशेषता रखती नहीं है। कोई शब्द के अर्थ भेद होने पर भी प्रायः सभी शब्द समानार्थक रहते हैं ।। १७६ ।।
"न य तं सहावओ च्चिय स-उत्थ-पगासण-परं पईओ व्वः ।
समय-विभेआ-5-जोगा, मिच्छत्त-पगास-जोगा य." ॥ १७७ ।। * "और, वह वेद वचन दीपक की तरह अपना स्व-अर्थ का प्रकाश करने में
स्वभाव से ही समर्थ नहीं है।" + "क्यों समर्थ नहीं है ?" + “शब्द के संकेतों को समानता होने से, और असत् पदार्थ का भी कभी प्रकाश करने से, कहीं पर, ये आपत्तियां आ जाती हैं" ।। १७७ ॥