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( ६५ ) - [ दानादि में द्रव्य-भाव स्तव-पना
गा० २००-२०१-२०२ ]
अ-रसीलो अ ण जायद सुद्धस्स तवस्स हंदि विसओऽवि । जह सत्तीएऽ-तवस्त्री भावह कह भावणा-जालं १ ॥ २०० ॥
और जो शीलवंत नहीं है, वह मोक्ष का कारण भूत तप का विषय भूत किस तरह हो सकता है ? अर्थात् तप को करने वाला किस तरह हो सकता है ? और जो मोह के परवश होकर, यथा-शक्ति भी तप नहीं करता है, वह भावनाओं का समूह को किस तरह भाव सके ? अर्थात् वह वास्तविकतया भावना • धर्म को नहीं कर सकता है ।। २०० ।।
[ इत्थं च] एत्थ कम दाण-धम्मो दव्व-त्थम- रूवमो गहेयव्वो । सेसा उ सु-परिसुद्धा णेआ भाव-त्थय सरूवा ॥ २०१ ॥ * यहां पर क्रम ऐसा है, कि- - दान धर्म को द्रव्य स्तव रूप जानने का है, क्योंकि - यह गौण धर्म रूप है । और परिशुद्ध शेष तीन (शोल - तप भावना) को भाव स्तव रूप समझना चाहिए। क्योंकि यह तीन मुख्य धर्म रूप है ।। २०१ ॥
4. इस प्रकार से - " धर्म की भेद-प्रभेद युक्त अनेक विध-व्यवस्था धर्म रूप है, ।" इस तरह से धर्म के सभी प्रकारों की घटना - विवेचना करने की महत्त्व की सूचना स्याद्वाद के आश्रय से व्यवस्थित तया की जाती है, -
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इय आगम- जुत्तीहिं य तं तं सुत्तमऽहिगिच्च धीरेहिं ।
इ
दव्व थया-ssदि रूवं विवेइयव्वं सु-बुडीए. ॥। २०.२ ।।
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धीर पुरुषों ने सूक्ष्म बुद्धि पूर्वक उस उस सूत्र के अधिकार की अपेक्षा • से आगम-शास्त्र में वतलाई हुई युक्तियों से द्रव्य-स्तव भाव-स्तव आदि रूप में अच्छी तरह से विवेचना - घटना करनी चाहिये ।। २०२ ।।
विशेषार्थ
विविध रूप से शास्त्रों में बतलाया गया मोक्ष साधक आध्यात्मिक बिकास के क्रम को परस्पर में घटना करके समझाया जा सकता है । दृष्टान्त देकर उसका मार्ग फरमाया है ।। २०२ ।।
* ग्रन्थ की उत्कृष्टता की स्तुति और समग्रतया ग्रन्थ का उपसंहार -
एसेह धय- परिण्णा समासओ वणिया मए तुझं [ तुम्भं ]. । वित्थरओ भाव - Sत्थो इमीए सुत्ताउ णायच्वो ॥ २०३ ॥