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( १३ )
[ द्रव्य-भाव स्तवों की विशेषता "
गा० १६५ - १६६ ]
+ यहां स्पष्टता की जाती है, कि
जंसो उक्कियरं अविक्खड़ वीरिअं इहं णिअमा. ।
ण हि पल-सपि वोदु अ-समत्थो पव्वयं वहइ, ॥ १९५ ॥
जो भाव स्तव है, वह शुभ आत्म परिणाम रूप होने से उत्कृष्ट वीर्य की ही अपेक्षा रखता है, इस कारण से-अल्प वीर्य वाला उसको किस तरह कर सके ? जो अल्प शक्ति वाला पुरुष होने से पल का भी भार नहीं उठा सकता है, वह पर्वत का भार कैसे उठा सके ? तो यहां, द्रव्य स्तव का भार सो पल समान है, और भाव स्तव का भार पर्वत का भार समान है ।। १९५ ।।
विशेषार्थः
भाव स्तव के योग्य वीर्य प्राप्त करने का उपाय भी द्रव्य स्तव ही है । द्रव्य स्तव के बिना भाव स्तव की प्राप्ति नहीं हो सकती है। प्रतिमा बहन की माफक इस विषय में अनियम नहीं है ।
जुत्तो पुण एस कमो [
]
"यह क्रम योग्य है ।" अंसा कहा गया है ।"
अलग अलग प्रकार के द्रव्य स्तवों को भाव स्तव को प्राप्ति के उपाय के सहाय से नियत क्रम रूप है । और गुण स्थानकों का क्रम भी अस्त व्यस्त नहीं होता है । अर्थात् गुण स्थानों की प्राप्ति भी क्रमिक होती है, इत्यादि कारणों से द्रव्य स्तव और भाव स्तव का क्रम नियत ही है ।
अर्थात् - भाव स्तव की प्राप्ति द्रव्य स्तव से ही होती है। किसी को भवान्तर में द्रव्य स्तव की प्राप्ति हुई हो, और इस जन्म में भाब स्तव की प्राप्ति हुई हो । किन्तु भाव स्तव की प्राप्ति के पूर्व द्रव्य स्तव की प्राप्ति अवश्य होनी चाहिए, यह नियम है ।। १९५ ।।
ऐसी बात कहकर अधिक स्पष्टता की जाती हैजो बज्झ च्चाएणं णो इत्तिरिपि णिग्गहं कुणइ, । इह अप्यणो सपा से सव्व-च्चाएण कहं कुज्जा ? ।। १९६ ।।
आत्मा बाह्य त्याग कर वंदनादिक के लिए थोड़ा काल के लिए