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गा० १६१-१६२ ]
(६१) [ वेद हिंसा-अहिंसा उपसंहार से कहा गया है कि____ "मंड (ग्रंथि आदि) को नष्ट करने के लिए-अर्थात् रोग विशेष को नष्ट करने के लिए-विधि पूर्वक दाह करना चाहिये," ऐसा कहा गया है ॥१९॥ (फलित अर्थ क्या हुआ ? यह बतलाते हैं-)
"तसो वि किरमाणे ओह-णिसेहुभवो तहिं दोसो। जायइ फल-सिद्धोए वि. एअं इत्थं पि विण्णेयं." ||१९१॥
वैद्यक-शास्त्र के वचन से दाह करने पर भी- सामान्यतया जिसका निषेध किया गया है-ऐसा औसर्गिक निषेध का-भंग रूप हिंसा दोष तो लगता ही है, रोग क्षय रूप फल मिलने पर भी सामान्य हिंसा रूप दोष बनता ही है । अर्थात्-सर्वतोमुखी सम्पूर्ण अहिंसा नहीं होती है। ____उसी तरह-वेद के विषय में भी समझना चाहिये, अर्थात्-वेद वाक्यों की प्रेरणा से-आज्ञा से-प्रवृत्ति करने से उसका फल भी मिलता है, तथापिउत्सर्ग निषेध का भंग रूप दोष तो रहता हो ।
अपेक्षा से विशेष हिंसा का फल मिलने पर भी सामान्य हिंसा का दोष निवृत्त नहीं होता है । ( आपवादिक हिंसा की अपेक्षा से अहिंसा मानी जाने पर भी, औत्सर्गिकतया हिंसा रूपता नहीं जाती है ) ॥ १९१ । __(इस प्रासंगिक विचार में- दोनों छपे ग्रन्थों को मूल गाथाएं और दोनों अवचूंरिकायें पाठ भेद और अशुद्धि आदि कारणों से, चर्चा की सूक्ष्मता से, तथा पूर्व पक्ष-उत्तर पक्ष को अस्पष्टता रहने से भी विषय की तथा प्रकार को विशुद्धता करने में क्षतियां रह गई हैं। संपादक।) "कयमित्य पसंगणं' 'जहोचिआवेव दव्व-भाव-थया।
अण्णोऽण्ण-समणुविद्धा मिअमेणं होति मायव्वा." ॥१९२।। * 'इस द्रव्य स्तवादि के विचार में जो प्रासंगिक विनार का प्रारंभ किया गया था, उसको आगे न चलाकर यहां समाप्त किया जाता है।