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गा० १८८-१८६-१६० ] (१०) [ संभवत्-असंभवत्-विचार
इस कारण से-समझदार पुरुष ने, अ-स्थान में स्थापित कर-उत्तस न्याय को-दूसरे वचन में लगाकर, तुच्छ-रूप में नहीं बना देना चाहिये । अर्थात्-चास पंचास-न्याय की तरह (?) असंभवित को संभविततया बतलाकर न्याय को तुच्छ नहीं बना देना चाहिये (१) ॥१८७।। * उसमें युक्ति बताई जाती है:
"तह, वेए च्चिअ भणि सामण्णणं जहा-"ण हिंसिज्जा। भूआणि". फलुद्देसा पुणो अ "हिंसिज्ज" तत्थेव." ॥ १८८ ।।
तथा, वेद में ही उत्सर्ग से सामान्यतया कहा गया है कि- "न हिंस्याभूतानि" "प्राणिओं की हिंसा नहीं करनी चाहिए।" फिर भी फल की अपेक्षा से कहा गया है कि
"अग्निहोत्रं जुहुयात् स्वर्ग-कामः" "स्वर्ग की इच्छा वालों को अग्निहोत्र में होम करना चाहिए।"
इससे- "हिंसा करनी चाहिये” ऐसा उसमें (वेद में ) ही देखा जाता है ।। १८८॥
"ता, तस्स पमाणत्तेवि एत्थ णिअमेण होइ दोसो-त्ति"। फल-सिद्धीए वि, सामण्ण दोस-विणिवारणा-5-भावा. ॥ १८९ ।।
तो इस कारण से-उस वचन को प्रमाण भूत माना जाय, और इस अनुसार वचन की प्रेरणा से वर्तन-पालन किया जाय, तो-स्वर्गादिक फल की प्राप्ति होने पर भी, (हिंसा) दोष की प्राप्ति लग जाती है । क्योंकि-"प्राणियों की हिंसा न करनी चाहिये," यह सामान्य वाक्य का-औत्सगिक वाक्य का अर्थ का दोष का निवारण नहीं होता है-अर्थात्-दोष की प्राप्ति हो जाती है ।।१८९।। * (दृष्टान्त से समझाया जाता है-)
जह वेज्जगम्मि दाहं ओहेण णिसेहिउ, पुणो भणियं-। 'गंडा-ऽऽइ-खय-निमित्तं करिज्ज विहिणा तयं चेव." ।। १९० ॥
जिस तरह-वैद्यक शास्त्र में, दुःख करने वाला होने से सामान्यतया (शरीर को) दग्ध करने का निषेध किया गया है, तथापि फिर भी-किसी फल की अपेक्षा