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गा० १७३-१७४-१७५ ]
(८३) . [पौरुषेय अपौरुषेय + "पिशाच का वचन कभी भी सुना जाता है। और उसका बोलने वाला अदृश्य रहता है । तो वेद वचन इस प्रकार का भी नहीं है क्योंकि- उसको अपौरुषेय कहा गया है। इस स्थिति में अदृश्य पिशाच का वचन तो लौकिक वचन है, अपौरुषेय नहीं है। और अपौरुषेय वेद वचन सदा सुनने में नहीं आता है" ॥१७२।। ' "अपौरुषेय पने को स्वीकार कर लिया जाय, तो जो दोष आता है, वह यहां पर बताया जाता है"वण्णा-ऽऽय-ऽ-पोरसेअं." "लोइअ वयणाणऽवीह सव्वेसि."। "वेअभ्भि को विसेसो ? जेण तहिं एसऽ-सग्गाहो." ॥ १७३ ।। + "लौकिक वचनों के भी अक्षरादि की सत्ता जगत् में इस अपौरुषेय रूप से
सर्व ने मानी है। क्योंकि-अक्षरपना (और वाचकपना) आदि का इस जगत् में कोई उत्पन्न करने वाला नहीं है । इस कारण से वचन अपौरुषेय है।" + "इस रीति से तो लौकिक भी सभी वचन अपौरुषेय सिद्ध हो जाते हैं, तो, वेद वचन में क्या विशेषता है ? जिस कारण से- उसका अपौरुषेय पना मानने का इतना बड़ा भारी दुराग्रह रखा जाता है ?" ॥१७३॥
"ण य णिच्छो वि हु तओ जुज्जइ पायं कहिं चि सण्णाया ? " "जं तस्सऽत्थ-पगासण-विसएह अइंदिया सत्ती." ।।१७४ ॥ "कितनेक विषय में प्रायः सन्न्याय पूर्वक (अपौरुषेय) वेद वाक्यों से (अर्थ का) निर्णय भी घट सकता नहीं है।" * "(क्यों नहीं घट सकता है ?) क्योंकि-अर्थ प्रकाशन के विषय में वेद वचनों की अतीन्द्रिय शक्ति है ॥१७४॥
"णो पुरिस-मित्त-गम्मा तद-ऽतिसओऽवि हु ण बहु-मओ तुम्हं, । लोइअ-घयणेहिं तो दिड च कहिं चि वेहम्म". !॥ १७५ ॥