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गा० १८१-१८२-१८३ ] (८६) [पौरुषेय-अपौरुषेय
"तत्तो अ आगमी जो विणेअ-सत्ताण, सोऽपि एमेवः । तस्स पओगो चेवं अ-णिवारणगं च णिअमेणं." ॥१८१॥
"इस कारण से-वैदिक (अर्थज्ञ) [आचार्य] से शिष्य वर्ग को जो व्याख्या का बोध होता है, वह भी ऐसा ही रहता है। अर्थात् व्यामोह रूप रहता है । और-आगमार्थ का जो प्रयोग होता है, सो भी व्यामोह ही है । और जो निवारण नहीं किया जाता है, वो भी व्यामोह है । (१)" ॥१८१॥
"णेवं परंपराए माणं एत्थ गुरू संपयाओऽवि । रूव विसेस हवणे जह जच्च धाण सव्वेसिं" ॥१८२।। .
"इस प्रकार से परंपरा से चला आता गुरु संप्रदाय भी इस विषय में प्रमाण भूत नहीं बन सकता है। जिस तरह- अनादिकालीन सर्व जन्मांध पुरुषों का श्वेत और श्याम रंग का भेद बतलाने में ज्ञान और कथन प्रमाण भूत नहीं हो सकता है' ॥१८२॥
विशेषार्थः जन्मांध श्याम और श्वेत का भेद स्वयं पा सकता नहीं, ऐसी स्थिति अनादिकाल से सिद्ध है ।।१८२॥ * अब प्रतिवादी इस विषय में नई शंका उठाता है:
"भवओऽवि अ," सव्व-ण्णू सव्वो आगम-पुरस्सरो जेणं.। ता, सो अ-पोरसेओ, इअरो वाऽणा-ऽऽगमाओ उ." ॥१८३॥
"आपके पक्ष में भी, सभी सर्वज्ञ आगम पूर्वक ही होते हैं। क्योंकिआगम में कहा गया है, कि-"सर्वज्ञ होने की इच्छा वालों को और केवलज्ञान प्राप्त करने की इच्छा वालों को तप, ध्यान इत्यादि करना चाहिए।" इस प्रकार आगम शास्त्र में कहा गया है। शास्त्र की उस आज्ञा से तप और ध्यानादि किये जाते हैं, तो यह आगम भी किसी सर्वज्ञ पुरुष से नहीं कहा जाने से अपौरुषेय सिद्ध होता है । क्योंकि-'आगम को कहने वाला