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गा० १७०-१७१-१७२ ] (८२ )
[ पौरुषेय-अपौरुषेय * यह स्पष्टतया समझाया जाता है
जं "वुच्चइ' त्ति "वयणं." पुरिसा--भावे उ णेवमेअंति.। ता तस्सेघाs-भावो णिअमेण अपोरसेअत्ते. ॥ १७० ॥
कि-जो "घोला जाय” उसको "वचन" कहा जाता है। यह व्युत्पत्ति सिद्ध (यौगिक) अर्थ का शब्द है। और पुरुष का अभाव से (कोई भी) वचन नहीं बोला जाता । इस कारण से- इस प्रकार अपौरुषेय माना जाय, तो वचन का संभव रहता ही नहीं ।। १७० ॥
विशेषार्थ __जो बोला जाता है, इससे उसका नाम 'वचन' रखा गया है। जो बोला न जावे, उसका नाम "वचन" नहीं है, इस कारण से वचन संज्ञा सार्थक रखी गई है । और जब वह-अपौरुषेय हो, तो वचन का अभाव रूप ही सिद्ध हो जाता है ।। १७० ॥ तव्यावार [विउत्तं] -विरहितं ण य कत्थइ सुव्वईह [इहं] तं वयणं. । सवणेऽवि य णा-ऽऽसंका अ-हिस्स-कत्तु भवाऽवेइ." ॥ १७१ ॥
किसी का बोलने का प्रयत्न बिना "वचन" कभी भी जगत् में सुनने में आता नहीं है, कदाच सुनने में आ भी जाय तो, "उसका बोलने बाला अदृश्य भी कोई होना चाहिए।" मन में सदा होती ऐसी शंका मन से दूर नहीं जाती है, क्योंकि-प्रमाण विना वह शंका किस तरह दूर हो जा सके ?" || १७१ ॥ "अ-दिस्स-कत्तिगं णो अण्णं सुव्वइ, कहं णु आसंका ?" ।
"मुव्वइ पिसाय-वयणं कयाइ, एअं तु ण सदेव" ।।१७२ ।। * "जिसका बोलने वाला अदृश्य हो, ऐसा कोई दूसरा वचन सुनने में आता हो नहीं, तो अदृश्य बोलने वाला की आशंका किस तरह हो सकती है ?"
(क्योंकि-विपक्ष देखने में आता नहीं, मात्र सपक्ष ही देखने में आता है । अर्थात्- जो बोलता है, वह किसी को भी देखने में आता ही है । "इससे अदृश्यकतक वचन नहीं मिलता है।")