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गा० ७०-७१- ]
( ३३ )
[गीतार्थ-निश्रित-मुनि
समझाने वाला रहता है, ऐसी उस की सरल और समझदारी रखने की प्रकृति रहती है, जिससे कर्म बन्ध का अनुबन्ध रहता नहीं ।। ६९ ।। इअरहा उ, अभिणिवेसा इयरा, ण य मूल-छिज्ज-विरहेणं. । होएसा एत्तोच्चिय पुव्वा-ऽऽयरिया इमं चाऽऽहु.:-॥ ७० ॥
पच्चा० १४ १९॥ दूसरी रीति से (विचार किया जावे, तो-) गीतार्थो ने जिसका निषेध किया हो-जो कार्य करने की मनाई को हो, उसको करे, अर्थात्-मनाई का स्वीकार न कर, उसको करे, अर्थात्-स्वाग्रह के वश वर्ती होकर,-मिथ्या आग्रह से उस कार्य किया जावे, तो वह प्रवृत्ति-कर्म बन्ध की परंपरा को चलाने वाली ही होती है।
क्योंकि-ऐसी प्रवृत्ति संसार का मूल को उछिन्न करने वाला चारित्र गुण के अभाव बिना नहीं हो सकती है । अर्थात्-चारित्र पात्र यानि चारित्र गुण प्राप्त-आत्मा ऐसी प्रवृत्ति किसी भी हालत में कर सकता नहीं हैउसे, वह नहीं ही हो सकती है।
निषिद्ध प्रवृत्ति भी स्वाग्रह से की जावे तो. उस प्रवृत्ति को सानुबन्ध प्रवृत्ति कहा जाती है। क्योंकि उससे कर्म बन्ध को परंपरा चलती है ॥७०॥ * इस कारण से ही श्री पूर्वाचार्य भगवंतो ने निम्न प्रकार की व्यवस्था बतलाई है,
"गीअ-ऽत्यो य विहारो, बीओ गोअ-ऽत्थ-मो नि) सिओ भणिओ. । इत्तो तहय विहारो णा-Sणुण्णाओ जिण वरेहिं. ।। ७१ ।।
॥ पञ्चा० १४-२० ॥ गीतार्थ का जो विहार है, वह एक है, क्योंकि-गीतार्थ और उसकी प्रवत्ति, उन दोनों का अभेद उपचार कर, दोनो को एक ही रूप से कहे गये हैं। दूसरा-गीार्थ निश्रित का विहार कहा गया है । गीतार्थ की आज्ञा में रहा हुआ आत्मा का विहार-मुनि जीवन-कहा गया है । उन दोनों विहार से रहित तीसरा विहार ( श्रामण्य ) श्री जिनेश्वर देव ने फरमाया ही नहीं।