Book Title: Stav Parigna
Author(s): Prabhudas Bechardas Parekh
Publisher: Shravak Bandhu

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Page 166
________________ गा० ११२ ११३ ११४ ] ( ५३ ) [ मुनि को चैत्य वन्दना इस ( उपचार विनय रूप * द्रव्यस्तव) को संपादन कराने के लिए ही श्री. वन्दना सूत्र में भी पूअण ० ( वतियाए ) इत्यादि का जो (शब्दशः) उच्चारण किया गया है, वह मुनि को भी बराबर घटता है ॥ १११ ॥ इअरहा, अण-Sत्थगं तं. ण य तयऽणुच्चारणेण सा भणिया । ता, अभिसंधारणमो संपाडणमिट्ठमेअस्स. ॥ ११२ ॥ पञ्चा० ६-३९ ॥ जो एसा न हो तो, श्री ( वन्दनासूत्र में जो उच्चारण किया गया है), वह निरर्थक हो जाता है । और, उस सूत्र के उच्चार विना मुनि की वदना नहीं कही गई है । इस कारण से, खास विशिष्ट प्रकार की इच्छा से भाव से मुनि को भी द्रव्यस्तव संपादित करने का रहता है ।। ११२ ।। सक्ख। उ कसिण-संजम दव्वा ऽ-भावेहिं णो अयं जहणो [ इट्ठो ] . । गम्म तंत- डिइए- "भाव - प्पहाणा हि मुणओ" ति. ॥ ११३ ॥ पञ्चा० ६-४० ।। संपूर्ण संयम से और द्रव्य (धनादि पदार्थ) के अभाव से यह (द्रव्यस्तव) मुनि को साक्षात् स्वरूप से नहीं माना गया है । और पूर्वापरका विचार करने से, यह बात शास्त्रयुक्ति से भी ठीक बैठती है, कि "मुनिमहात्माएँ भाव की मुख्यता वाले हैं" "भाव प्रधाना हि मुनयः " इसी कारण से - मुनि में द्रव्यस्तव गौणरूप में रहता है, मुख्य रूप में नहीं ॥११३ एएहिं तो अण्णे धम्मा-हिगारीह जे उ, तेसिं तु । सक्खं चिय विष्णेयो भावा- गतया, जओ भणियं ॥ ११४॥ । पञ्चा० ६-४१ ॥ "ज्ञान दर्शन- चारित्रोपचारा' ९.२३" श्री तत्त्वार्थाऽधिगम सूत्र । "ज्ञान विनय, दर्शन विनय, चारित्र दिनय और उपचार विनय । ९-२३"

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