Book Title: Stav Parigna
Author(s): Prabhudas Bechardas Parekh
Publisher: Shravak Bandhu

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Page 180
________________ गा १३४-१३५ ] ( ६७ ) ( म्लेच्छों का वचन क्यों प्रमाण नहीं ? : "उस ( म्लेच्छ पर्वतक वचन ) तुच्छ और अनुचित ( असंस्कारि ) है।" यदि ऐसा कहा जाय. + तो, उन (मलेच्छों) को दृष्टि में आशय भेद से इस (प्रेरक वैदिक वाक्य) में भी इस प्रकार की (तुच्छ और अनुचित आदि रूप) स्थिति रह जाय" ।।१३३।। [गा० १३४ और गा, १३५ को अवचूरिका का भाव बराबर समझ में आता नहीं है, और जिस प्रकार से प्रतिमाशतक में छपा गया है, उस प्रकार का ही पाठ कलकत्ता के तपागच्छीय पुस्तकालय की हस्त लिखित प्रति. में है, अर्थात दोनों गाथा की योग्य अवचूरिका नहीं है। किन्तु दोनों गाथा के आगे अवतरणिका के रूपसे कुछ पाठ दिया गया है। तथापि-दोनों गाथा को छाया बनाकर अर्थ की संगति करने के लिए प्रयास किया गया है। और पंचवस्तु महाग्रन्थ में जिस तरह दोनों मूल गाथायें और उनकी अवचूरिका है, वेसी ही यहां पर दी गई है। इसका कोई उपाय नहीं है । सम्पादक ] ["अह तं वेयः गं खलु" “न तंपि एमेव" 'इत्थ वि ण माणं ।" - 'अह-तथाऽ-सवणमिणं" सि ए [अ-ए] मुच्छिन्न-साहं तु." । १३४ ॥ : "अब कहा जाता है कि उस द्विज प्रर्वतक वाक्य वेद का अंग रूप है।" : "तो म्लेच्छ प्रर्वतक वाकय भी वेद में न हो, उसमें कोई प्रमाण महीं है।" + "वेद में ऐसा कोई वनन सुनने में आता नहीं है।" + (सुनने में न आवे ऐसा भी) हो सकता है, किन्तु, (इसका कारण यह भी कहा जाय कि (वेदों की) बहुत सी शाखायें उच्छिन्न (हो गई) है,' (ऐसा कहा जाता है। उसी कारण से ऐसा वचन सुनने में न भी आवे ।)" ऐसा वे भी कह सकते हैं ।" ।।१३४।। "ण य तव्वयणाओ चिय तदुमय-s-भावो ति, तुल्ल भणिईओ."। अण्णा वि कप्पणेवं साहम्म-विहम्मो दुहा. ॥ १३५ ॥ ' कहा जाय कि-"उस (वेद) वचन से ही वे दोनों (धर्म और दोषामाव) नहीं हो सकता है ।" क्यों ?

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