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गा० १३१-१३२-१३३]
( ६६ ) म्लेच्छों का वचन क्यों प्रमाण नहीं ?
विशेषार्थ रागादि रहित ऐसा कोई सर्वज्ञ नहीं है. कि-जो "वैदिक वाक्य हो प्रमाण भूत है, दूसरे दाक्य प्रमाण भूत नहीं." ऐसा बता सके । १३१ । दूसरा भी दोष बताया जाता है
"एवं च वयण-मित्ता धम्मा-5-दोसा.ऽऽइ मिच्छगाणं पि ।
घायंताणं दि-अ-वरं पुरओ गणु चंडिगा-ऽऽइणं. ।। १३१ ।। : 'इस प्रकार (प्रमाण विशेष नहीं मिलने से भी ) वचन मात्र से म्लेच्छ (भील्ल) आदि की प्रवृत्ति को धर्म-रूपता और निर्दोषता प्राप्त हो जाती हैं ।
अरे ! चंडिका देवी आदि के आगे अच्छे ब्राह्मण का भी घात करने वाले म्लेच्छादि की प्रवृत्ति धर्म रूप और निर्दोष सिद्ध हो जाती है, जो ठीक नहीं है ॥ १३१॥
"न च तेसि पि ण धयणं एत्य निमित्तं" ति, जण सव्वे उ : तंतह घायंति सया, अ-स्सुअ-तच्चोयणा-वक्का." ॥ १३२ ।। "इस (द्विजवर के घात) में उन्हीं का भी वचन निमित्त भूत नहीं है, एसा भी नहीं है। वचन निमित्त भूत रहता है। क्योंकि- सभी म्लेच्छ लोग उसी प्रकार सदा के लिए उस (द्विजवर ) का घात करते नहीं हैं, क्योंकि- उत्त विषय में प्रेरक [नोदना ] वाक्य जिन्होंने न सुना हो, वे घात करते नहीं है !" अर्थात्-"उस घात में भी-वचन को प्रेरणा निमित्त भूत है। ऐसा समझना चाहिये" ॥१३२॥ ..
"अह-"तं ॥ एत्थ रूढ़" "एअंपि ण तत्थ. तुल्लमेवेयं."।
"मह" सं थोषमणुचियं" "इमं पि एयारिसं तेसिं ॥ १३३ ॥" + “यदि ऐसा माना जाय कि-वह ( मलेच्छ प्रतर्वक वचन ) इस (लोक) में रूढ नहीं हैं !" तो यह ( वैदिक वाक्य ) भी उस (भोल्ल लोक) में रूढं नहीं है" इस कारण से दोनों दलीलों को समानता रह जाती है। क्योंकि दोनों भी वचन एक एक में रूढं नहीं है" !