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गा० १५२-१५३-१५४ ]
( ७६ )
[ यतना का सामर्थ्य
इस जिन भवनादिक बनाने में यतना से प्रवृत्ति करने वालों को यह हिसा भी अल्प लगती है ।" क्योंकि- 'ग्लानादिक की सेवा आदि सभी कार्यों में यतना हो धर्म का सार-रूप है ।" ऐसा समझना चाहिए ।
विशेषार्थः यतना और भाव शुद्धि से प्रवृत्ति करने में हेतु हिंसा और अनुबंध हिंसा नहीं होती है । इस कारण से मात्र स्वरूप हिंसातक हिंसा मर्यादित रह जाती है । उस कारण से उसमें अल्प हिंसा होती है । उस हेतु से थोड़ा भी कर्मबंध नहीं होता है । इस दृष्टि से "इट्ठा एसा वि मोक्ख-फला ।" [१४२] इस गाथा में-उस हिंसा को मोक्ष फल को देने वाली होने से इष्ट मानी जाने का पूर्व ही कहा गया है ।
इस बात का प्रमाण भी दिया जाता है-- "अणुमित्तोऽपि ण कस्सऽइ बन्धो वर वत्थु पच्चया भणिओ.' । इति सैद्धान्तिकाः ॥ १५२ ।।
"उत्तम वस्तु निमित्तक किसी को भी अणुमात्र का भी बन्ध नहीं होता है।" एसा सिद्धान्तकारों ने कहा है ।। १५२ ॥ "जयणेह धम्म-जण्णा. जयणा धम्मस्स पालणी चेव. । तव्वुडिढ-करो जयणा. एग ति सुहा-ऽऽवहा जयणा." || १५३ ।।
(१) इस जगत् में पतना धर्म की माता है। (२) यतना धर्म को जन्म देकर उसका पालन भी करती है । (३) यतना धर्म को बढ़ाने वाली है ।
(४) यतना सभी ओर से कल्याण करने वाली होने से, एकान्त से सुख करने वाली है ।। १५३ ।। (यसना का महत्व को अधिक स्पष्टता-) "जयणाए वट्टमाणो जीवो समत्त-णाण-चरणाणं । सद्धा-बोहा-ऽऽसेधण-भाषेणाऽऽराहगो भणिओ. ॥१५४॥
यतना में वर्तने वाला जोव (आत्मा) श्रद्धा, बोध, और आसेवना-पालन