Book Title: Stav Parigna
Author(s): Prabhudas Bechardas Parekh
Publisher: Shravak Bandhu

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Page 187
________________ गा० १४७-१४८-१४९ ] (७४ ) [ हिंसा में तार-तम्य "अत्थि जओ, ण य' एसा अण्ण-ऽत्थ [तीरह] सकए इहं भणि । अ-विणिच्छया, ण चेवं इह सुव्वइ पाव-वयणं तु. ॥ १४७॥ "इस प्रकार स्मृति और श्रुति के वाक्य विद्यमान तो है, किन्तु, "उनके दूसरे अर्थ होते हैं, कि-"अविधि दोष से उत्पन्न हुआ पाप से बचाने का अर्थ है ।" ऐसा भी नहीं कहा जा सकता है । क्योंकि-ऐसा कोई प्रमाण नहीं है ।" * और, श्री जिन भवनादिक कराने में इस प्रकार के कोई पाप वचन इस शास्त्र में-जैन शास्त्र में-प्रवचन में-तो नहीं सुना जाता है । १४७ ।। "परिणामे य [म-सु] सुहं णो तेसिं इच्छिज्जइ. णय सुहं पि. । मंदा-5-वत्थ कय-समं. ता तमुवण्णोस-मित्तं तु. ॥ १४८ ॥ "जिन भवनादि कराने में जिन जीवों की हिंसा होती है, उन जीवों को परिणाम में हिंसा-निमित्तक सुख होता है।" ऐसा जैन शास्त्राकार भी मानते नहीं है। और हिंसा से सुख मानते नहीं है । थोडा थोडा कुपथ्य करने से उतना दुःख मालम नहीं पड़ता है, किन्तु, वह भी परिणाम में भयंकर दुःख देने वाला होता है। उसी प्रकार-मंद कुपथ्य करते समय भी सुख का अनुभव रहता है । किन्तु वह भी वास्तव में सुख नहीं है । इस कारण से उसको सुख कहना वचन मात्र ही रहता है ।। १४८ ।। "अह तेसिं परिणाम० [१२१]" गाथा में पूर्व पक्षकार ने जो कहा था, उसको स्पष्टता इस जवाब से की गई है। "यज्ञ में होमे गये पशुओं को परिणाम में स्वर्ग का सुख दिया जाता है।" ऐसा भी कहना योग्य नहीं । हिंसा का विपाक दारूण होता है ।।१४८॥ + 'इय दिट्ठ-विरुद्धं जं वयणं, एरिसा पवत्तस्स. । मिच्छा-ऽऽइ-भाव-तुल्लो सुह-भावो हंदि विण्णेयो'. ॥ १४९ ॥ इस प्रकार दृष्ट और इष्ट से विरुद्ध जो वचन हो, ऐसा वचन से, प्रवृत्ति करने वाला जो हो, उसका शुभ भाव म्लेच्छादि के शुभ भाव समान

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