Book Title: Stav Parigna
Author(s): Prabhudas Bechardas Parekh
Publisher: Shravak Bandhu

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Page 185
________________ गा० १४३-१४४-१४५ j ७२ ) | वैद्य का दृष्टान्त स्वर्गादि देने वाली न रहने पर) मोक्ष रूप भी फल देने वाली होती है || १४२॥ ता एम्म [ एईए] अ-हम्मो णो, इह जुत्तं पि विज्ज-णायमिणं । हंदि गुण -s तर भावा. इहरा. विज्जस्स वि अ-धम्मो ॥ १४३ ॥ इस कारण से इस प्रकार की पीड़ा में अधर्म नहीं है । क्योंकिइससे गुणों की प्राप्ति होती है । इस विषय में प्रथम दिया गया वैद्य का वह दृष्टांत भी योग्य माना गया है। क्योंकि - उसमें भी लाभ होता है. इस से वैद्य की प्रवृत्ति (छेदन-भेदनादि पीड़ाकारी होने पर भी ) योग्य मानी जाती है। यदि, वैद्य भी (लाभ प्राप्त न हो ) इस प्रकार अविधि से (छेदनभेदनादि करे, तो ऐसी पीड़ा करने में) वैद्य को भी अधर्म होता है || १४३॥ * (वेद विहित हिंसा और जिन भवनादिगत हिंसा में भेद का प्रतिपादन - ) ण थ वेद्य-गया चेवं सम्मं, आवय-गुण Sन्निया एसा । णय दिट्ठ- गुणा, तज्ज्य-तय-ऽंतर णिवित्ति दा [आ] नेव । १४४ ॥ - . इस कारण से - वेद गत हिंसा. जिन भवनादि गत हिंसा के समान अच्छी नहीं है। क्योंकि वह हिंसा आपद निवारण गुण युक्त नहीं हैं अर्थात् अनिवार्य नहीं है। और साधु निवास आदि गुणोयुक्त भी नहीं देखी जाती । और हिंसा के बाद आरंभादि दूसरी प्रवृत्ति से निवृत्ति देने वाली भी वह हिंसा नहीं है । और पहिला भी निवृत्ति देने वाली नहीं रहती हैं. क्योंकि याज्ञिक लोक प्राणि के वध में आरंभ से प्रवृत्त रहते हैं ।। १४४ ।। " य फलुद्दस - पवित्तिओ इयं मोक्ख साइगा वि" ति. । मोक्ख फलं च सु-वयणं, सेसं अस्था-SSइ-वयण समं । १४५ ।। फल का उद्देश्य रखकर हिंसा की जो प्रवृत्ति की जाती है, उससे विचार किया जाय तो भी, उस हिंसा मोक्ष देने वाली भी नहीं सिद्ध होती है !

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