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गा० १४१-१४२. ]
(५१) । श्रारंभान्तर की निवृत्तिया * (पीडा कारी-पीडा करने वाली हिंसा पर विचार-)
पोडा-गरी वि एवं एत्य पुढवा-ऽऽइ-हिंस-जुत्ताओ.। अण्णेसिं गुण-साहण-जोगाओ दोसइ इहं तु [हेच] ॥१४१।।
पीडा करने वाली होने पर भी यहां पर जिन भवन कराने में पृथ्वी कायादिक जीवों की हिंसा होती ही है तथापि-वह योग्य है । क्योंकि- अन्य जीवों को स्व गुणों की साधना में वह कारण भूत है, गुणों की साधना जिन भवनादि से भी देखी जाती है । १४१ ।।
विशेषार्थ - जीवन में बिना हिंसा का कोई कार्य नहीं हो सकता है । कार्य तो दो प्रकार के रहते हैं। सांसारिक जीवन यापन प्रवृत्ति रूप, और आध्यात्मिक गुण प्राप्ति की प्रवृत्ति रूप । दोनों कार्यों में कुछ न कुछ स्वरूप में बाह्य हिंसा रहती ही हैं । इस स्थिति में-आध्यात्मिक गुण प्राप्ति रूप कार्यों में भी अनिवार्य रूप से हिंसा हो जाय,-करनी पड़े, उसको हिसा यों नहीं मानी जाती है, कि-परिणाम में उसी से गुण प्राप्ति होती है। गुण प्राप्ति का लाभ रूप हिंसा, अहिंसा बनती है । गुण प्राप्ति के लिए इतनी भी हिंसा बिना दूसरा कोई उपाय नहीं है, जीस में थोडी भी बाह्य हिंसा न हो संपादक]।।१४१॥
आरंभवी य इमा आरंभ-तर-निवित्ति-दा पायं. । एवं वि हु अ-णियाणा इटा एसो धि मुकख-फला. : १४२ ।।
(सांसारिक कार्यों में ) आरंभ करने वाला जीवों के लिए, यह हिंसा प्रायः (विधि पूर्वक करने से) दूसरे आरंभो से निवृत्ति ( रुकावट ) रूप फल देने वाली है। और सांसारिक फल की इच्छा से रहितपना पूर्वक को जाने से ऐसी हिंसा प्रतीपक्षीयों को भी निर्दोष होने से-मान्य है । अर्थात्-मान्य रखनी ही पड़ती है ।
इस कारण से ही इस प्रकार की पीड़ा करने वाली प्रवृत्ति भी ( मात्र