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गा० १३४-१३५ ]
( ६८ ) म्लेच्छों का वचन क्यों प्रमाण नहीं ? म्लेच्छ के वचन से ही ये दोनों-- धर्म और दोषाभाव रहता है। ऐसा भी कहा जा सकता है।
(मलेच्छ वचन से) भी धर्म और दोषाभाव नहीं हो सकता है।" ऐसा नहीं कहा जा सकता है। क्योंकि- मलेच्छ प्रर्वतक वचन से भी वे दोनों (धर्म और दोषाभाव) कहा जा सकता है । (एक पक्ष की युक्ति दूसरे पक्ष में
लागू की जाती है। : और इस कारण से ही दूसरी भी कोई कल्पना की जावे, वे सभी उपरोक्त
रोति से बराबर नहीं होगी. क्योंकि- कोई साधर्म्य से, और कोई वैधर्म्य से दूषित सिद्ध हो जायगी।
भाव यह है कि- इस चर्चा में-जो जो दलील दी जायगी वहसाधर्म्य और वैवयं की दलीलों से दूषित बतलाई जा सकती है । अर्थात् जोब्राह्मण के पक्ष में दलील दी जायगी, उस को म्लेच्छ के पक्ष में घटा कर साधार्य रूप से खंडित की जा सकती। अथवा-वैधर्म्य बतला कर भी खंडित की जा सकती, कि-'आप की दलील प्रस्तुत में बराबर बैठती नहीं।" ऐसा प्रमाण बतलाकर खंडित की जा सकती है। क्योंकि- मूल वस्तु की क्षति सर्वत्र ऐसी ही रह जाती है । यह रहस्य है ॥१३४, १३५॥ .
"अह तं ण वेइअं खलु" "न तंपि एमेव एत्थ वि ग माणं, ।" ''अह तत्थाऽ सवणमिदं हविज्ज. उच्छिपण साहत्ता. ॥१३४॥ ण य तविवज्जणाओ उचिय-भावोऽत्थ, तुल्ल-भणिईओ. ।
अण्णा वि कप्षणाइ साहम्म विहम्मओ दुट्ठा. ॥ १३५ ॥ ('अथ-तद्-न वैदिकं खलु" "न तदापि एवमेव, अत्राऽपि न मानम्." । "अथ तत्राऽ-श्रवणमिदं भवेत्, उच्छिन्न-शाखत्वात्. ॥ इ३४ ।। न च तद् विवर्जनात् उचित-भावोऽत्र, तुलय-भणितितः । अन्याऽपि कल्पना साधर्म्य वैधर्म्य तो दुष्टा ॥ १३५ ।। (?).
(प्रतिमाशतक की दो गाथा का पाठ इस तरह है- समझ में न आने से अर्थ नहीं किया है।)