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गा० १३०]
( ६५ ) . [ "सर्वज्ञ-प्रमाता नहीं" पक्ष अर्थात्-बड़े लोगों का भी मूढ व्यापार होता है। और थोड़े का मूढ व्यापार भी न हो; एसा मालुम पड़ता है। "बहुत कबूतर चारों के दाने देख कर, चुगने के लिए एक स्थान पर उतर गये । किन्तु एक वृद्ध कबूतर ने निषेध किया, कि-ये दाने खाने कों जाना अच्छा नहीं है। तथापि-सब उतरे।
और बिछायी हुई जाल में सब फंस गये । तब सभो वृद्ध का मुंह ताकते रहे, चतुर वृद्धने कहा "यदि जाल के साथ सभी एक साथ उडे तों रक्षा होगी, अन्यथा, शिकारी आने पर सभी की मृत्यु अवश्यमेव होगी ही। सभी एक साथ उड़े और बच गये।"
इस कारण से, सामान्य समझ के भी बहुत लोगों का मतों को एकत्र करने से अच्छा ही निर्णय हो जाय, ऐसा कोई नियम नहीं है। उसमें से भी ज्ञानी-समझदार, निःस्वार्थी, हितेच्छु का मानने का रहता है । भारत में ज्ञानी और हितस्वी संत पुरुषो का संत शासन चलता है । और दूसरी प्रजा का हित के लिए इस देश की उन्नति करने में और स्थानीय प्रजा की अवनति करने में, "हितस्वी बड़े लोग बाधा कारी दरम्यान गिरी न कर सकें," इस हेतु से आम प्रजा को बीच में खड़ी रखने की योजना की गयी है. जिसे वह हिवस्वी वर्ग दूर रह जाय । जाहीर जीवन से उन्हों को हटाने के लिए ये सभी बाहर के लोगों का आयोजन है। यह सत्य रहस्य है । इस सत्य रहस्य को स्थिर करने के लिए यह प्राचीन गाथा कितनी प्रमाणभूत और दृढतर है ? ऐसा शास्त्र प्रमाण-प्रजा का भला के लिए आज भी कितना मार्गदर्शक है ? यह शान्ति से सोचना चाहिए ।
* "ण य रागा-ऽऽहू-विरहिओं कोऽवि माया विसेस कारि" त्ति ।
"ज सव्वे वि अ पुरिसा रागा.ऽऽइ जुआ उ.” पर-पक्खे. ॥ १३० ।। * "सत्य को समझाने वाला और रागादि दोष से रहित तथा सर्व को जानने वाला विशेष कारी माता-प्रमाता-जाता है हो नहीं ! इस कारण से इस-जगत् में सभी मानव रागादि युक्त है," इस तरह का मत दूसरे पक्ष का-मीमांसक दर्शन का-है। क्योंकि वह दर्शन कोई सर्वज्ञ होने को स्वीकार नहीं करता है।" ।। १३०॥