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गा० ११५ ]
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[ कूप दृष्टान्त
देवे ही । शुभाश्रव, संवर, निर्जरा, महानिर्जरा का निमित्त जिन देव का प्रणिधान क्यों न बन सके ? किसी भी हालत में भावपूर्वक जिनदेव का प्रणाम अतिफल देता है "तुज्झ पणामो वि बहुफलो होइ" "आपको प्रणाम भी बहुत फल देता है ।
" श्वन्नाम कीर्तन" - आपका नाम का कीर्तन- उच्चारण भी फल देता है, स्मरण भी ।
जिनमंदिर, जिनप्रतिमा का दर्शन- स्पर्शन स्मरण भी जिनदेव के स्मरण में खूब निमित्तभूत होते ही हैं। तो स्मारक आत्मा की विशुद्धि के अनुसार अवश्य अशुभ का अनाश्रव आदि फलों को क्यों न देवे ? दूसरे दुन्यवी प्रत्यक्ष फल मात्र के फलों की कल्पना जैन शास्त्रों में नहीं है । वे आनुषंगिक फल है ।
अशुभ का अनाश्रवादि भी बड़ा भारी फल को भी फलों की कक्षा में बताया गया हैं । उसी कारण से जिन प्रतिमा के पूजादिक आध्यात्मिक सुफल सो शून्य नहीं है, क्योंकि अभिगमिक एवं साधनों से होने वाले सभी प्रकार के आध्यात्मिक विकास की प्राप्ति में तीर्थ-स्थापक श्री तीर्थ कर जिनदेव प्रधान साधन है, मुख्य है, मूलभूत है। उनका थोड़ा भी प्रणिधान आध्यात्मिक विकास के क्या क्या फल न देवे ? वे प्रतिमा द्वारा भी सुलभ और सर्वोत्कृष्ट प्रणिध्येय रूप है ।
जो आत्मा स्वात्म प्रणिधान से प्रणिध्येय कक्षा को पहुँच जाय, उसको आवश्यकता नहीं । किन्तु, वह भी औरों के लिए जिनदेव-सुगुरु- सुधर्म का प्रणिध्येयपणा का निषेध नहीं करे । निषेध करे तो, मार्गध्वंसरूप अनाचार दोष लग जाय । किन्तु उस कक्षा के महात्माओं के लिए ऐसी संभावना ही नहीं है । अन्यथा श्री तीर्थंकर प्रभु अपनी कक्षा के निम्न कक्षा के लिए तत् तत् विविध धर्माचरण का उपदेश दे भी न सके । न दे सके ? यथा पात्र के योग्य उपदेश अवश्य दे सके ।