Book Title: Stav Parigna
Author(s): Prabhudas Bechardas Parekh
Publisher: Shravak Bandhu

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Page 170
________________ गा० ११५ ] (५७) [ कूप दृष्टान्त तो कूप के दृष्टांत से जिस तरह गुण और दोष दोनों रहते हैं, तरह-जिन पूजा में भी कुछ धर्म कुछ अधर्म ऐसा समझना चाहिये ? ना, ऐसा नहीं, धर्म ही कहना चाहिये। क्यों ? निश्चय नय की दृष्टि से दोष में तो पड़ा ही था । दोष तो होते ही हैं । आग से भागना ही पड़ता है । किन्तु, बच जाने का फल मिलता है । यदि न भागे, तो मरना पड़े, उसी तरह शुभ और शुद्ध प्रणिधान की प्राप्ति आवश्यक है, उसके लिए स्नानादि भी द्रव्यस्तव में समाविष्ट होता है । जिन पूजा के लिए स्नानादि भी द्रव्यस्तव ही है । शरीर को स्वच्छ रखने के लिए स्नान किया जाय तो. वह सांसारिक प्रवृति का अंग बनता है । स्नान में भी यह भेद पडता है जिसमें श्री जिनेश्वर देव जैसे सर्वोत्कृष्ट पुष्टालंबन प्रणिध्येय रूप है, तो उसको स्तव क्यों न कहा जाय ? धर्म क्यों न कहा जाय ? प्रणिधान धर्म ही है ! और उसमें सहायक भी धर्म ही है । प्रणिधान शून्य हो, तो द्रव्यस्तव भी नहीं। तो उस कक्षा के जीव के लिए वह धर्म ही है। धर्म की नय सापेक्षसंख्याबद्ध व्याख्याएं है, उनमें से किसी एक जो व्याख्या लागु होती है । उस कक्षा की व्याख्या से वह धर्म ही कहा जाय । 'धर्म और अधर्म' ऐसा भी न . कहा जाय । गृहस्थ सुमुनि को दान देवें, उसमें भी कई प्रवृति होती है । हिंसा की भी संभावना रहती है, अवश्य रहती है, तो उसको भी धर्माधर्म कहा जाय ? नहीं : व्यवहार नय से-दानधर्म ही कहा जाय । 'भावस्तव संबंधी धर्म की व्याख्या (निश्चय नय) की अपेक्षा से-''धर्माधर्म" कहा जाय । किन्तु, द्रव्यस्तव की अपेक्षा धर्म की व्याख्या से-धर्म ही कहा जाय । धर्माधर्म नहीं : तैयार कूप से पानी मिल जाय, उसको अपेक्षा से, खोदना पड़े, ऐसा कूप में दोष और गुन दोनों देखा जाय: जल प्राप्त करने वाले को सामने दोष नहीं आता, जल प्राप्ति ही रहती है। अन्य रीति से जल प्राप्ति के अभाव में-कूपखनन, उससे जल निकालना, आदि दोषरूप न होकर, गुणरूप ही बनता है । देखने में दोष भी गुन के लिए होने से, गुणरूप बनता है, अन्यथा, गुणप्राप्ति कभी भी संभवित नहीं। प्रधानतया धर्म होने से उस कक्षा के जीवों के लिए व्यवहार नयसे धर्म ही कहना सशास्त्र और युक्ति सिद्ध भी है।

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