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गा० ११७-११८ ]
( ५९)
[मुनि की द्रव्य स्तव में अनुमोदना
___ "समाधान-"आदि" शब्द से जिन भवनादि करने-कराने का भी कहा है, क्योंकि-जिन-भवादिक के अभाव से-पुष्पादिक किस को चढाया जाय ? किसके लिए हो ? ॥११६॥
"नणु तत्थेव य मुणिणो पुप्फा-ऽऽइ णिवारणं फुलं अत्यि."
अस्थि तयं, सयं करणं पडुच्च, नऽणु-मोयणा-ऽऽइ वि.३११७॥ + "उस स्थान पर-स्तव के अधिकार में-पुष्पादिक का जो निवारण किया गया है, वह मुनिराज के लिए ही किया गया है।" "णो कसिण-संजमं."
"पूरा संयम में (पुष्पादिक का उपयोग मुनिराज इच्छते नहीं)" इत्यादि वचन से-निषेध जरूर किया गया है, किन्तु वह निषेध स्वयं पुष्पादिक का उपयोग करने की अपेक्षा से किया गया है ।
किन्तु-अनुमोदनादिक की अपेक्षा से नहीं किया गया है ॥११७॥ + उसका ही समर्थन किया जाता है,
सुव्वद अ "वयर-रिसिणा कारवणं णि अ अणुडिअमिमस्स." । वायग गंथेसु तहा एअ-गया देसणा चेव. ॥ ११८ ॥
पश्चा० ६-४५ ॥ सुना जाता है कि___ "श्री (पूर्वधर) वज्रस्वामी महाराज श्री ने कराया भी है, (और-तत्त्व से-किया भी है।" ) अर्थात्-द्रव्यस्तव का अनुष्ठान किया भी है। *"माहेसरोउ पुरीउ०" इत्यादि गाथा में-यह वृत्तान्त कहा गया हैं। "माहेश्वरी नगरी से पुरी नगरी." इससे जाना जाता है।
*माहेसरीउ सेसा-पुरियं नोआहुआसण-गिहाओ ।
गयण-तलमऽइवत्ता वहरेण महा-ऽणुभावेण ॥" "राजायुक्त माहेश्वरी नगरी जाकर, हुताशन व्यन्तर जो पिता का मित्र था, उसका गृहभूत उद्यान से महानुभाष श्री वज्रस्वामीजी आकाशमार्ग को लांघ कर पुष्पसंपद् "पुरी नाम नगरी में लाये।" इत्यादिक कथानक उक्त गाथा से सूचित होता है।