________________
गा० ११९-१२० ]
(६०)
. [हिंसा-अहिंसा विचार
औरश्री ( उमास्वाति ) वाचक महाराज के ग्रन्थ में भी इस विषय पर [जिन भवन बनाना इत्यादिक द्रव्यस्तव बनाने का उपदेश संबन्धी] देशना दी गई है-सुनी जाती है। "यस्तृण-मयों कुटी०' इत्यादि से [पूजा प्रकरण] . और, "जिन-भवनम्" इत्यादि, "जिनभवन बनाना" इत्यादि भी [प्रशमरति]
विशेषार्थः [धर्म रत्नमाला आदि ग्रन्थों में भी इस विषय की देशना सुनी जाती है। पंचवस्तु से]
और वाचक श्री के ग्रन्थ में भी सुना जाता है ।।११८॥ * (नया प्रश्न-)
धर्म में हिंसा-अहिंसा आहे [ह,:-'ए]वं हिंसा वि हु धम्माय ण दोस-यारिणी" त्ति ठियं । एवं च- 'वेय-विहिया णेच्छिज्जह सेहवामोहो." ॥११९॥ पूर्वपक्षकार कह रहा है, कि
'इस प्रकार से सोचा जाय, तो-"धर्म के लिए की जाने वाली हिंसा दोषोत्पादक-दोषरूप नहीं है," ऐसा सिद्धांत स्थिर हो जाता है। उसके बिना द्रव्यस्तव नहीं होता। और इस प्रकार से-"वेद में जो हिंसा देखी जाती है, वह हिंसा को अहिंसातया क्यों नहीं मानी जायगी? ऐसा न मानना, यह एक प्रकार का व्यामोह है-(अपका ) अज्ञान है ।” ॥११९।।
विशेषार्थः । ''दोनो समान होने से वेद-विहित हिंसा को भी, धर्म के लिए होने से धर्म कहना चाहिये, जिस तरह जिन पूजा में होती हुई हिंसा-धर्म रूप मानी जाती है । दोनों समान स्थिति में हैं" पूर्व पक्ष का यह तात्पर्य है ॥११९॥
"पीड़ा-गारी त्ति अह सा.” "तुल्लमिणं हंदि अहिगयाए वि. ।
ण य पीडाउ अ-धम्मो णियमा, विज्जेण वभिचारा." ।।१२०॥ * जवाब दिया जायगा, कि-"यह (वेदविहित हिसा) पीड़ा करने वाली है।"
"तो-यहां चर्चा का विषय भूत जिन भवनादि गत) प्रस्तुत हिंसा भी