________________
गा० ११५ ]
( ५५ )
.
[ कूप-दृष्टान्त
द्रव्यस्तव को व्याख्या क्या है ? "भावस्तव की प्राप्ति के लिए भावस्तव सिवाय जो कुछ धर्म प्रवृत्ति की जावे, वे सभी द्रव्यस्तव रूप है। देवगुरु धर्म के प्रणिधान पूर्वक जो कुछ किया जाय, वे सभी द्रव्यस्तव में समाविष्ट होते हैं। जिनपूजा, तीर्थ यात्रा सम्यक्त्वमूल बारह व्रत, आदि सभी भावस्तव से व्यतिरिक्त उन सभी धर्मकार्य का समावेश द्रव्य स्तव में होता है ।
सम्यक्त्व सामायिक, श्रत सामायिक और देश विरति सामायिक (और उपलक्षण से मार्गानुसार भाव से) जो किया जाय, उन सभी का समावेश द्रव्यस्तव में होता है : शीलांग सम्यग् चारित्र रूप है। सम्यग् दर्शन-ज्ञान रूप द्रव्यस्तव उचित रूप में मुनि कर सकते हैं, और अनुमोदना भी,
___ इस कारण से छोटा बड़ा जो कुछ धर्मकार्य किया जाय, उसमें कुछ न · कुछ प्रवृत्ति रहेगी ही, तो हिसा आदि होने की संभावना और शक्यता भी अवश्य है ही। तो भाव स्तव के सिवाय कहीं भी धर्म की संभावना नहीं रहेगी। ___ अत एव, उनमें देव-गुरु-धर्म संबन्धि जो और जितना प्रणिधान होता है, वह मुख्यतया द्रव्यस्तव है, प्राणिधान स्वरूप से तो उसको भावस्तव भी कहा जाय, किन्तु, साथ में अन्य-हिंसा आदि का सम्पर्क होने से द्रव्य विशेषण दिया गया है । भावस्तव में भी शुभ और शुद्ध प्रणिधान होता है । द्रव्यस्तव में भी शुभ और अल्प मात्रा में शुद्ध प्रणिधान रहता है, इस कारण से दोनों को सामान्य स्तव शब्द से कहे गये हैं।
___ यदि प्रणिधान न हो, तो दोनों ही स्तव शब्द से वाच्य न किया जा सकता है । प्रणिधान रहित द्रव्यस्तव को भी द्रव्यस्तव नहीं कहा जा सकता, अप्रधान दिखावा मात्र का-द्रव्यस्तव भले ही कहा जाय ।
जिन-पूजा, विधि-भक्ति-यतना और औचित्य पूर्वक की जावे, तो वह भी द्रव्यस्तव ही है। विधि में आज्ञाका पालन होता है। भक्ति में प्रभु का प्रणिधान रहता है, यतना में अहिंसा आदि का पालन होता है। औचित्य में विवेक को जाग्रती रहती है। जिन पूजा में दान-शील-तप-भाव भी रहता है।
जिन मंदिर में जितने समय अशुभ का भी अनाश्रव-संवर रहे, उतने समय कर्मबंध में जो फरक पड़ जाय, थोड़ा भी जिनका प्रणिधान अनाश्रव का लाभ