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गा० ९२-९३-९४ - ]
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[ साधु परीक्षा
इस शास्त्र में जो जो मूल गुण कहे गये हैं, उनको धारण करने से सच्चा साधु
हो सकता है ।
मात्र बाह्य
वर्ण होने पर भी विषघाति आदि गुणोंके भंडार हो, तो वह सच्चा सोना और सच्चा साधु होता है ॥ ९१ ॥
4 [दृष्टान्त घटाया जाता है- ]
जो साहू गुण-रहिओ भिक्खं हिंडई, [ण होइ] कह णु सो साहू ? | वर्णणं जुत्ति-सु-वण्णयं वाऽ-संते गुण निहिम्मि. ॥ ९२ ॥
पञ्चा० १४-४१ ॥
उfts-ne भुंजइ छक्काय पमद्दणो, घरं कुणइ । पञ्चखं च जल-गए जो पिवइ, कहं णु सो [साहू ?] भिक्खू साहू ॥ ९३ ॥
पञ्चा० १४-४२ ॥
गुणों से रहित होने पर भी जो साधु भिक्षा लेने के लिए जावे, वह सच्चा साधु किस तरह हो सकता है ?
जिस तरह, मात्र रंग से पीला हो, तथापि विषघाति पना आदि गुणों से रहित हो, ऐसा सोना सच्चा सोना नहीं होता है, मिलावट से वह बनाया हुवा रहता है ।। ९१ ॥
खास जान बूझ कर ( आकुट्टिका से ) वह औद्देशिक आहार करता है, बे-दर कारी से छ जीव निकाय का मर्दन करे - हिंसा करे, देव के गृह के बहाना से अपने के लिए गृह बना लेवे, और ( आकुट्टिका से ) जंतु से पूर्ण (सचित्त) पानी पीता है, वह साधु किस तरह माना जाय ? उसको साधु नहीं माना
जा सकता ।। ९३ ।।
अन्ने उ कसा - SSइआ किर एएत्थ हुँति णायव्वा, 1 एयाहिं परिक्खाहिं साहु-परिक्खेह कायव्वा ॥ ९४ ॥ पश्चा० १४-४३ ।
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अन्य आचार्य महाराजाओं का कथन यह है, कि - "प्रथम जो कष छेद आदि से चार प्रकार
परीक्षा बतलाई है, - वे औद्द शिक