________________
गा० १०१-१०२-१०३ ] ( ४७ ) (मुनि का अनुमोदना रूप द्रव्य स्तव आज्ञा का विशिष्ट प्रकार से पालन रूप देश विरति और सर्वविरति का पालन रूप-प्रतिपत्ति पूजा । उन चारों पूजा श्री अरिहंत प्रभु की भक्ति रूप होने से भी-उत्तरोत्तर में प्राधान्य-मुख्यता-विशिष्टता रखती है । अर्थात-अंग पूजा से अग्र पूजा श्रेष्ठ है, अन पूजा से भाव पूजा श्रेष्ठ है, भाव पूजा से प्रतिपत्ति पूजा श्रेष्ठ है । उसी तरह द्रव्य-स्तव-भाव स्तव में भी परस्पर के संबन्ध समझना चाहिये ॥१००। "जहणो वि हु दव्व त्यय-भेओ अणुमोयणेण अधि"-त्ति । एअंच इत्थ णेयं इय सि सु]इं तंत-जुत्तीए. ॥ १०१ ॥
पञ्चा० ६.२८॥ * मुनिराज को भी अनुमोदना द्वारा द्रव्य-स्तव के लेश-भाग का मिश्रण रहता है।
और अनुमोदना शास्त्र-युक्ति से भी इस प्रकार सिद्ध [शुद्ध] होती समझनी चाहिये,- ॥ १०१ ॥ (वह अनुमोदना रूप द्रव्य स्तव का लेश, किस प्रकार है ? वह शास्त्र प्रमाण से बताया जाता है,.) तंतम्मि वंदणाए पूअण-सकार-हेऊ उस्सग्गो। जहणो वि हु णिदिट्ठो. ते पुण दव्व-त्थय-स-रूवे. । १०२ ।।
॥ पञ्चा० ६-२९॥ शास्त्र में भी, चैत्य वन्दना के अनुष्ठान में-पूजन निमित्तक और सत्कार निमित्तक कार्योत्सर्ग करने का है, सो मुनि को भी करने का बताया गया है । - पूअण-वत्तियाए
सक्कार वत्तियाए" (श्री अरिहंत-चेइयाणं. नामक चैत्य स्तव सूत्र में इस प्रकार पाठ है।) पूजा और सत्कार यह दोवों द्रव्य स्तव रूप है। अन्य स्वरूप नहीं है । १०२।।
मल्ला-ऽऽइए हिं पूआ, सक्कारो पवर-वत्थमाईहिं. । अण्णे-विवज्जओ-इह. दुहा वि दव्व-
त्थओ इत्थ. ॥ १०३ ॥
॥पञ्चा० ६-३० ॥ माला आदि से पूजा होती है, और उत्तम वस्त्रादि से सत्कार होता है ।