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गा० ९६-९७- ]
(४५)
[द्रव्य स्तव से भाव स्तव की प्राप्ति
सुपरिशुद्ध गुणों से ही (शुद्ध) भाव साधु ही होता है, क्योंकि-ऐसे-उपधा [ कसौटियों से ] शुद्ध गुणों से ही मोक्ष की-सिद्धि प्राप्त होती है। अन्यथा-(भाव साधुपना विना-मात्र (अप्रधान) द्रव्य रूप साधुपना से मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती है। शुद्ध भाव साधुपना विना शुद्ध चारित्र और मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती है ॥ ९५ ॥
॥सु-साधु-और सुवर्ण का दृष्टान्त का विचार पूरा ।। + (द्रव्य स्तव से भावस्तव की प्राप्ति होती है । इस प्रसंग में भाव स्तव का स्वरूप विस्तार से बताया गया, और द्रव्य स्तव और भाव स्तव का जो भेद बताया जा रहा था, उस विषय को आगें चलाया जाता है ।)
अलमित्थ पसंगेणं. एवं खलु होइ भाव-चरणं तु. ।
"पडिबुझिस्संतपणे" भाव-ज्जिय-कम्म-जोएणं ॥१६॥ (प्रमाण पूर्वक भाव स्तव के विषय में जो कहा जाता था-) वह प्रसंग समाप्त किया जाता है। जिस का स्वरूप ऊपर बताया गया है, उस प्रकार का भाव चारित्र होता है। उस को भाव चारित्र क्यों कहा जाता है. ? "जिसका आलंबन से दूसरे अनेक जीवात्माएं प्रतिबोध पायेंगे," ऐसा जिनायतन कराना आदि द्रव्य स्तव से शुभ-भाव पूर्वक बान्धा गया जो शुभ कर्म,-उस शुभ कर्म से- आगे जाकर भावस्तव रूप भाव चारित्र की प्राप्ति होती है, जो मोक्ष को देने वाला होता है। इस कारण से द्रव्यस्तव को भाव चारित्र का कारण कहा जाता है। यह रहस्य है । ९६ ।।
अ-पडिवडिय-सुह-चिंता-भाव-ऽज्जिय-कम्म-परिणइए उ. । एअस्स जाइ अंतं, तओ सो आराहणं लहइ. ॥ ९७ ॥
. पञ्चाशक ७-४८ ॥ अस्खलित शुभ-विचारणा-आशय-अध्यवसाय रूप-भाव से उपार्जित किये गये कर्म (के उदय के सहयोग) से जो जिनायतन बनवाने की परिणति होती है, उसके