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गा० १०७ ]
(५०)
[ कारण में कार्य रहता है।
इस से - " वह लेशमात्र भी भाव, अर्थ से, द्रव्य से रहित नहीं होता है । इस कारण से - " भाव की साथ उस को भी द्रव्यस्तव की भी अनुमोदना होती है, वह भी अनुमोदना के पात्र है ।
[ पञ्च वस्तु मध्य - इस गाथा की टीका इस प्रकार है
"य: एव भाव-लेशो बल्या-ssदौ क्रियमाणे,
इत्याशङ्कयाऽऽह
स एव च भगवतस्तीर्थ करस्य बहुमतः " ।
नाऽसौ भाव-लेशो विनेतरणे ण-द्रव्य स्तवेन, इत्यर्थः । सोऽपि द्रव्य- स्तवः एवमेव - अनुमतः । इति गाथा ऽर्थः ।
अर्थः
बलि आदि करने में भाव का जो लेश भाग है, वही प्रभु को बहुमत है, ( द्रव्य-द्रव्य- स्तव नहीं) ।
(ऐसी शंका उठाकर समाधान किया जाता है, कि) "वह भाव लेश भी द्रव्य स्तव से रहित नहीं होता है, इस कारण से वह भी ऐसा होता है अर्थात् वह भी ( द्रव्य स्तव भी) अनुमत होता है । ]
+ यही स्पष्ट किया जाता है, -
" कज्जं इच्छंतेणं अण-तरं कारण पि इट्ठ" ति. । . जह आहार-ज-तित्तिं इच्छंतेणेह आहारो ।। १०७ ।।
पञ्चा० ६-३४ ।।
जो कार्य को अपेक्षा रखता है, उसको मोक्ष रूप फल को देने वाला नजदीक के कारण की भी अपेक्षा रखनी ही पड़ती है ।
किस
तरह ?
"इस लोक में भी, आहार से होने वाली तृप्ति को जो इच्छता है, उसको आहार करने का भी इष्ट रहता ही है" ॥ १०७ ॥
विशेषार्थ
यहां प्रश्न होता है,
" द्रव्य स्तव से, द्रव्य स्तव की प्राप्ति के बीच अर्ध पुद्गल परावर्तन काल का
कि