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गा० ७२-७३-७४-]
( ३४ ) [गीतार्थ-और तन्निश्रित की चर्या (यहां पर, विहार शब्द का अर्थ-जिस चर्या से साधु जीवन बना रहे, उस जीवन को समझना चाहिये ॥ ७१ ॥ * इस गाथा का भावार्थ समझाया जाता है
गीअस्स ण उस्सुत्तो. तज्जुत्तस्सेयरस्स वि तहेव. णियमेण चरणवं, जं. न जाउ आणं विलंघेइ.।। ७२ ॥
पञ्चा० १४.२१ ।। श्री गीतार्थ की प्रवृत्ति उत्सूत्रप्रयुक्त नहीं रहती है. और गीतार्थ युक्त-यानिगीतार्थ की आज्ञा में जो निष्ठ हो, उस दूसरा की भी प्रवृत्ति ऐसी ही रहती है। (अर्थात्-ससूत्र ही रहती है, उत्सूत्र रूप नहीं रहती है, आज्ञा युक्त रहती है ।) क्योंकि-चारित्रवंत आत्मा आज्ञा का उल्लंघन कभी भी करता ही नहीं। क्योंकि-चारित्रवंत आत्मा अज्ञान और प्रमाद से रहित होता है, अर्थात्ज्ञान और अप्रमाद से-जागरुक भाव से-युक्त रहता है। यह रहस्य है ॥७२॥
ण य गीअ-ऽत्थोअण्णं ण णिवारेइ जोग्गयं मुणेऊणं.। एवं दोण्हं वि चरणं परिसुद्ध, अण्णहा णेव. ।। ७३ ।।
पश्चा० १४-२२ । : अहित में प्रवृत्ति करने वाला अगीतार्थ-अजाण आत्मा को गीतार्थ गुरु अहित से रुकावट नहीं करते हैं, ऐसा नहीं, अहित से रुकते ही हैं, । क्योंकिरोकने योग्य की योग्यता समझकर रुकावट की जाती है ।
और-वह आत्मा रुकावट का स्वीकार भी कर लेती है। इस कारण से दोनों का ही चारित्र सुपरिशुद्ध रहता है ।। ७३ ।।
विशेषार्थः १ एक-अहिल मार्ग से रुकावट करता है, २ दूसरा-उसको मान्य कर लेता है, जिससे-दोनों का चारित्र शुद्ध होता है ।
जो ऐसा न करे, तो वे दोनों ही शुद्ध चारित्र रहित होते हैं ।। ७३ ।। + (उपसंहार)
ता, एवं विरह-भावो संपुण्णो एत्थ होइ णायव्यो ।। णियमेणं अट्ठा-रस-सील-उंग-सहस्स-रूवो उ. ।। ७४ ।।
॥ पञ्चा० १४-२३ ॥