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गा० ८३-८४-८५ ]
(४०)
[ सुवर्ण के गुण
इस प्रकार की हमारी प्रतिज्ञा है । दूसरे को सच्चा साधु न कहा जाय, उसमें कारण यह है कि-'वे गुण रहित है, ऐसा समझना चाहिये ' अर्थात् साधु के योग्य गुणों से रहित वह रहता है । यहां, सुवर्ण का दृष्टांत समझना चाहिये ॥ ८२ ॥ .
विशेषार्थ यहां सुवर्ण का व्यतिरेक दृष्टांत है । सुवर्ण-सोना में जो गुण है, वे गुण जिस साधु में न हो, वह साधु नहीं ऐसा भाव है, अर्थात् -जिस में सुवर्ण के समान गुण हो, वही सच्चा साधु ॥ ८२ ॥ * सोने के गुण बताये जाते हैं ---
विस-घाइ-रसा ऽऽयण-मंगल-5 त्थ-विणए पयाहिणा-ऽऽवत्ते । [ग] गुरुए अ-डज्झ-ऽकुत्थे अट्ठ सु वण्ण-गुणा हुँति. ॥ ८३ ॥
__ पश्चा० १४-३२ ।। सोना-१ विष को-झहर को-विनिष्ट करता है,
२ रसायण रूप है, ३ मंगलों के कार्य करने वाला है, ४ नम्र है-मदु है, यथेच्छ वल सकता है, ५ अग्नि से गाला जावे, तब स्वभाव से ही दाहिनी ओर घूमता है
( बांया नहीं घूमता है), ६ सारभूत होने से-गुरु है- भारी है. ७ वह भस्म रूप न होने से अदाय है,
८ कभी भी वह सड़ता नहीं। + सोने में इस प्रकार के आठ मुख्य गुण हैं ।। ८३ ॥ प्रस्तुत विषय में वे गुण घटायें जाते हैं,- .
इह [अ] मोह -विसं घायइ, सिवोवऐसा रसा-ऽऽयणं होइ. । गुणओ अ मंगल-इत्थं कुणह, विणीओ अ “जोग्गं" त्ति. ॥८४॥ मग्ग-ऽणुसारि पयाहिणं, गंभीरो गुरुअओ तहा होइ, । कोह-ऽग्गिणा अ-उज्झो. अ-कुत्थो सह सील-भावेण. ॥ ८५ ॥
पञ्चा० १४-३३-३४॥