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गा० ११-१२-१३-१४ }
+ दल शुद्धि में विशेषता -
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सुस्स वि गहिस्स पसत्थ दिअहम्मि सुह-मुहतेणं. । संकमणम्मि वि पुणां विष्णेया सउणमा -ऽऽईया ॥ ११ ॥
[ कर्मकर संतोष प्रदान
ग्रहण किया हुआ शुद्ध काष्ठादिक पदार्थों का उपयोग भी करने के लिए प्रवेश कराने का भी, शुक्ल पंचनी आदि उत्तम दिन में
और
शुभ मुहूर्त में करना चाहिये ।
उस समय भी सुभाशुभ शकुनों को देखना चाहिये । ( अर्थात् - शुभ शकुनो में उनका उपयोग करने का प्रारंभ करना चाहिये, और अशुभ शकुनो में नहीं ॥ ११ ॥
+ फल बताये जाते हैं
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३ काम करने वालों के साथ अच्छा व्यवहार, -
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कारवणे वि य तसिह भयगाणाऽतिसंघाणं ण कायव्वं ।
अवि याऽहिय- प्पयाण, दिट्ठाऽदिट्ठ-फलं णेयं ॥ १२ ॥
जिन मंदिर बनवाने के कार्य में भी काम करने में कार्य करने वालों
hi हीं करना चाहिये, और योग्य शुल्क देना चाहिये ।
और अधिक देने से निम्न लिखित प्रत्यक्ष और परोक्ष फल जानने चाहिये ||१२||
ते तुच्छया वराया अहिएण दढं उवेंति परितोस. ।
१३ ॥
तुट्ठा य तत्थ कम्मं तत्तो अहियं पकुव्वंति. प्रत्यक्ष फल - वे कर्मकर वर्ग थोड़े में संतुष्ट रहता है, और मृदु स्वभाव का भी रहता है। अधिक देने से खूब खुशी रहते हैं । और खुशी में आकर - ( मंदिर जी के काम में पूर्व से अधिक काम करते रहते हैं । ।। १३ ।। ( यह दृष्ट फल है )
धम्म-प्रसंसाए तह केइ निबंधिंति बोहि आई ।
अन्ने य लय- कम्मा एतोचिय संपबुज्झति ॥ १४ ॥
+ १ परोक्ष फल - १ आत्मा में कुशल भाव होने से ।
धर्म की प्रशंसा करते करते कोई-कोई कार्यकर बोधि बीज की परंपरा को प्राप्त कर लेता है । और
२ पूर्व का पाप कर्म अल्प होने से कितनेएक कार्य कर उदारता का पक्षपाती बनकर बुझकर धर्म मार्ग भी प्राप्त कर लेते हैं ।। १४