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गा० ३०-३१ ]
( १३ )
[आगे का पूजा विधि
सु-विशेषार्थ यहां पर समझने का सार यह है, कि-एक विभाग को क्रिया में जिस तरह (सर्व-) देश का परिणाम होता है, उसी तरहव्यक्तिगत क्रिया में नजदीक-पना के सम्बन्ध विशेष से-सभी व्यक्ति सम्बन्धि भी-सामान्य संबन्धि परिणाम भी हो जाता है" यह सिद्धांत सिद्ध करने में कोई मुश्किल बात नहीं है (?) ॥२९।। * फिर भी आगे का पूजा विधि बताया जाता है,
तत्तो य पइ-दिणं सो करिज्ज पूअं जिणिंद-ठवणाए ।
विभवा-Sणुसार-गुरुई काले णियमं विहाणेणं. ।। ३० ॥ प्रतिष्ठा के बाद में श्रावक श्री जिनेश्वर देव की स्थापना की-प्रतिमाजी की१५ प्रतिदिन स्व-विभव अनुसार-योग्य धन व्यय पूर्वक१६ दर रोज-प्रतिदिन, १७ योग्य समय में १८ भोजनादि के समान निश्चित रूप से-अवश्यंतया१९ भव्यता पूर्ण २० अभ्यर्चना रूप २१ पूजा करनी चाहिये ।।३०॥ * जिन पूजा ही बता रहे है,
जिण-पूआए विहाणं,-सूई-भूओ, तए चेय उवउत्तो, ।
अण्ण-उंगम-ऽछिवन्तो करेइ जं [प]वर-वत्थूहि ॥३१ ।। पूजा का विधि१ पूजा करने का उद्देश्य से-उसमें ही उपयुक्त होकर प्राणिधान पूर्वक-दत्त
चित्त वाले-होकर, . २ स्नानादिक से पवित्र होकर, ३ (स्वशरीर के भी) मस्तक आदि किसी भी अंग का स्पर्श न करते हुए, ४ सुगन्ध युक्त पुष्पादि उत्तम पदार्थो से पूजा करनी चाहिये ॥३१॥ * शेष विधि भी यहां बताया जाता है