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गा० ३५-३६- ]
(१५) . [प्रधान-अप्रधान द्रव्य स्वव
विशेषार्थ "यावज्जीव धर्म की आराधनाउत्तम पुण्य विशेष का और विशिष्ट निर्जरा की कारण बनती है" यह गभित अर्थ समझना चाहिये । ३४.!
एवं चिय भाव-त्थए आणा-आराहणा उ रागो वि.।
जं पुण एय-विवरियं, तं दव्व-थओ घिणो होइ. ॥ ३५ ॥ 1 इस विधि से जिन पूजा- (द्रव्य स्तव) करने पर
आज्ञा की आराधना होती है, और भाव स्तव में-राग भी होता है । * यदि, वह द्रव्य-स्तव भी विपरीतपना से - स्वछंद वृत्ति से -आज्ञा रहित पना से. किया जाय, तो यह [प्रधान द्रव्य स्तव भी नहीं होता है । ।।३५ ।
विशेषार्थ १ द्रव्य पूजा यदि भाव स्तव के राग से किया जाय, तब ही वह द्रव्य स्तव
बनता है, क्योंकि-द्रव्य स्तव भी अपेक्षा से भाव स्तव का एक भाग
रूप ही है। २ तार्किक विद्वानों का भी कहना है कि "सूत्र की आज्ञा सिद्ध द्रव्य स्तव
ही भाव स्तव का कारण बनता है, उत्सूत्र रूप द्रव्य स्तव भाव स्तव का
कारण नहीं बनता है ॥३५॥ * आज्ञा रहित पना से किया गया द्रव्य स्तव को भी यदि द्रव्य स्तव माना जाय, तो दोष बताया जाता है,. भावे अइ प्पसंगो, आणा विवरीयमेव जं किंचि ।
इह चित्ताऽणुट्ठाणं, तं दव्व-त्थओ भवे सव्वं ॥ ३६॥ १ यदि सूत्र की आज्ञा से विरुद्ध जिन भवनादिक को द्रव्य-स्तव के रूप में
माना जाय, तो अतिव्याप्ति दोष आ जाता है। २ इस लोक मेंघर बनाना इत्यादि जो कुछ विविध प्रवत्तियां आज्ञा के विरुद्ध की जाती, वे सभी,द्रव्य स्तव हो जाय, ३ क्योंकि