________________
६५ ]
( २९ )
जिस तरह कोई अबुध व्यक्ति अज्ञानता से, कायोत्सर्ग ध्यान में स्थित कोई मुनिराज को उठाकर जलाशय में फेंक देवे, उस समय उक्त मुनिराज का शरीर से पानी को धक्का लगे, और उससे अपकाय जीवों का वध हो जाने की पूरी संभावना है. - होता है। तथापि उस महात्मा का अहिंसक भाव अचलित रहने से वह स्वयं हिंसा में प्रवृत्त नहीं होने से शीलांग का खण्डन में प्रवृत्त
-
नहीं है ।। ६५ ।।
-
विशेषार्थ
क्योंकि - माध्यस्थ्य भाव को टोकाई रखने से - अखण्डितता टीक रहती है । स्व बुद्धि पूर्वक दोषयुक्त को गई प्रवृति को ही दोषित प्रवृत्ति कहा जा सकती है ।
श्री धर्मसागर उपाध्यायजी महाराज का जो मत है, -
"उस हिसा में मध्यस्थ मुनिराज का कायादिक का योग कारण भूत नहीं है, किन्तु, जिसकी हिंसा होती है, उस (अपकाय जीव) का योग उसमें कारण भूत रहता है । उसी कारण से - मुनिराज का शील का भंग नहीं होता है ।" यह मत ठीक नहीं है, क्योंकि उसमें अति प्रसंग- अति व्याप्ति-दोष आता है । और
"एगया गुण समीपस्स रीअतो काय-संफास समपुचिण्णा एगतिया पाणा उद्दायंतित्ति ।*
]
[ श्री आचारांग सूत्र-सूत्र १५८, अ०५, उद्दे० ४. पृ० २१० इस प्रकार के - आगम सूत्र से विरोध आता है । योग युक्त की काया का स्पर्श में एक काय योग का ही व्यापार रहता है ।
इस विषय को चर्चा का विस्तार दूसरे स्थान पर ग्रन्थान्तर में किया गया है (प्रायः स्वोपज्ञ धर्म परोक्षा वृति में (?) ।
* इस सूत्र की वृति का भावार्थ:
एगया = कीसी समय पर
बुन समियस्स= गुणों से युक्त अप्रमत्त मुनिराज को
पौषमाणस्स = सम्यग् अनुष्ठान में उपयुक्त रहने से - ( अर्थात्- )