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गा०६-७-८]
. [ भूमि-शुद्धि "सो तावसा-ऽऽसमाओ तेसिं अ-अप्पत्तियं मुणेउणं, ।
परमं अबोहि बोअं, तो गओ हंत-काले वि." ।। ६ ।। + (गुणों के द्वेष से होने वाली एवं) परम अ-बोधि (सम्यक्त्व गुण के अभाव) के कारण उन तापसों की) अप्रीति को (मनः पर्याय ज्ञान से) समझकर, वह भगवान ने अ-काल में भी वर्षा चातुर्मास में भी-तापस के आश्रम से विहार कर दिया था ।। ६ ।।
विशेषार्थः + वह तापस के आश्रम के कुलपतिजी प्रभु के पिता के मित्र रूप एवं पितृव्य-चाचा तुल्य थे : इससे चातुर्मास के लिए आग्रह किया था। किन्तु वर्षा न होने के कारण गौओं के समूह ने झोंपडी के तृण को खा डाला। निरीह प्रभु ध्यान में थे । तापसों की अप्रीति का यह कारण बन गया था। ६ इसी रीति से• "इय सव्वेण वि सम्मं सक्कं ण-प्पत्तियं सइ जणस्स। णियमा परिहरियव्वं." "इयरम्मि सत्तत्त-चिंत्ताओ.” ॥ ७ ॥
परलोक ( हित ) को चाहने वालों ने प्रयत्न पूर्वक जहां तक वने वहां तक-सदा के लिए, सभी जीवों की अप्रीति से अवश्य ही दूर रहना चाहिये । जहां पर
अप्रीति दूर न की जा सके, वहां परउत्तम तत्त्व की विचारणा करनी चाहिये ॥ ७ ॥
विशेषार्थ पाह्य से-"यह मेरा हो दोष है।" ऐसा उत्तम तत्त्व का विचार करना चाहिये । और अन्तर्मुख से-उदासीन रहना चाहिये ॥७॥
॥ भूमि शुद्धि समाप्त ।। १२. काष्ठाविक पदार्थो को-दलों-की शुद्धि
कहा-ऽऽई वि दलं इह सुद्धं, जं देवता-Sऽदुपवणाओ। नो अ-विहिणोवणी, सयं च कारावियं जं नो. ॥ ८ ॥