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गा० २ ]
(३)
[ द्रव्य-भाव-स्तव-व्याख्या
विशेषार्थ१, उत्तम अर्थों का वर्णन जिसमें पाया जाय, उसे उत्तम शास्त्र कहा
जाता है। २. “स्तव-परिज्ञा" आदि विशेष प्रकार के प्राभृत है। * ३. पंच-वस्तु शास्त्र के अनुज्ञा अधिकार में उत्तम शास्त्रों की गणना में
स्तव-परिज्ञा और ज्ञान-परिज्ञा प्राभृतों का निर्देश किया गया है । * ४. "स्तव परिज्ञा का भावार्थ क्या है ?"
इस प्रश्न का उत्तर-"गौण रूप से और प्रधान रूप से, द्रव्य स्तव शब्द से वाच्य, और भाव स्तव शब्द से वाच्य है-कहे जाते हैं, उन दोनों का
वर्णन जिस ग्रन्थ रचना में किया गया हो, वह स्तव परिज्ञा है। + यही आगे बताया जाता है,
(३ द्रव्य स्तव और भाव स्तव ) दव्वे भावे अ थओ. "दव्वे-भाव-थय-रागओ विहिणा
जिण-भवणा-ऽऽइ विहाणं." "भाव-थओ-संजमो सुद्धो." ॥२॥ + १. द्रव्य-स्तव और भाव स्तव दो प्रकार के स्तव है। * २. द्रव्य-स्तव-भाव स्तव के प्रति अनुराग से जिन मंदिर आदि को विधि . पूर्वक करना, और कराना । आदि-शब्द से -जिन-बिम्ब, पूजा आदि
का संग्रह समझना चाहिये । * ३. भाव स्तव-निरतिचार पूर्वक साधु क्रिया रूप शुद्ध संयम का पालन समझना चाहिये ॥२॥
विशेषार्थ भाव स्तव करने की इच्छा ( भावना ) की प्रेरणा के बल से"जिन-भवन-कराना" आदि प्रवृत्ति में जिस जिस प्रवृत्तियों का समावेश होता है, वे सभी द्रव्य-स्तव शब्द से व्यवहार करने योग्य है। ( अर्थात्-द्रव्य स्तव और भाव स्तव में ही जैन धर्म के सभी आचारो का एव चरणानुयोग का पूरा समावेश हो ( देखिये गाथा २०२ ) सकता है ।
(४ जिन भवन कराने का संक्षिप्त विधि)