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जैन परम्परा में मंत्र-तंत्र :
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स्वरूप, यन्त्रोद्वार और साधना की विधि बताई है। यह भी कहा है कि वशीकरण, स्तम्भन, मोहन, विद्वेषण और उच्चाटन कर्मों का मन में विचार भी नहीं करना चाहिए, केवल धर्मवृद्धिकारक शान्तिक और पौष्टिकता का ही विचार करना चाहिए। एच०आर० कापडिया ने इसका समय १५-१६वीं सदी माना है। १५. रक्त- पद्मावती-कल्प
अज्ञात कर्तक यह रचना 'भैरव-पद्मावती-कल्प' में प्रकाशित है। यह केवल गद्यात्मक है। इसमें, मंत्र, यंत्र और पूजा की विशिष्ट विधि बतलाई गई है। यहाँ पद्मावती की सिद्धि को सर्वकर्मकर कहा गया है और यंत्र को भी आकर्षणादि षट्कर्मकर बताया गया है। एच०आर० कापड़िया ने अनेक मूर्तियों का उल्लेख किया है।२७ इसकी संवत् १७३८ की हस्तलिखित प्रति जैन सिद्धांत भवन, आरा के संग्रहालय में है, जो अन्य प्राचीन प्रति से तैयार की गई है। १६. अम्बिका-कल्प
इसके कर्ता शुभचन्द्र हैं। यह कल्प सात अधिकारों में विभाजित है। इसकी एक हस्तलिखित पाण्डुलिपि जैन सिद्धांत भवन, आरा में है।२८ दिल्ली जिन-ग्रन्थरत्नावली (पृ० १२१) एवं जिनरत्नकोष, (पृ० १५) में भी इसकी सूचना है।
इनके अतिरिक्त मानतुंग का 'भक्तामर स्तोत्र', मलयकीर्ति का ‘सरस्वती कल्प', गणधर वलय का 'घंटाकर्णवृद्विकल्प', 'प्रभावती कल्प', जिनप्रभसूरि का 'रहस्य कल्पद्रम' और 'शारदा स्तवन' (सारस्वतमन्त्र गर्भित), दुर्गदेव का मन्त्र 'महोदधि', हेमचन्द्रसूरि का 'सिद्धसारस्वत स्तव', शुभसुन्दरगणिकृत ‘यन्त्रमन्त्रभेषजादिगर्भित युगादिदेव स्तव', भद्रबाहु का 'उवसग्गहर स्तोत्र', मानतुंगसूरि का 'नमिऊण' अपरनाम ‘भयहरस्तोत्र', पूर्णकलशगणि का 'स्तम्भनपार्श्वस्तवन', मानदेवसूरि का ‘लघुशांति स्तव', अरिष्टनेमि भट्टारक का 'श्रीदेवता-कल्प', अर्हद्दास का ‘सरस्वतीकल्प', सिंहनन्दी का 'नमस्कार-मन्त्र-कल्प', 'णमोकार-मन्त्र-कल्प', 'चक्रेश्वरीकल्प', 'सूरिमंत्र-कल्प', 'श्रीविद्या-कल्प', 'ब्रह्मविद्या-कल्प', 'रोगापहारिणी-कल्प' तथा पर्याप्त संख्या में मंत्र-स्तोत्र रचे गये हैं। इनमें अप्रकाशित ग्रन्थों की संख्या भी पर्याप्त है। जिनका सुसम्पादित होकर प्रकाशन अपेक्षित है।
आचार्य जिनसेन ने 'आदिपुराण' में तिरपन गर्भान्वयं क्रियाओं (३८/५९२०७) का वर्णन किया है। उसके बाद इन क्रियाओं की सिद्धि के लिए मंत्र कहे हैं। भूमिशुद्धि के बाद पीठिका मंत्र, जाति मंत्र, निस्तारक मंत्र, ऋषि मंत्र, सुरेन्द्र मंत्र, परमराजादि मंत्र और परमेष्ठी मंत्र लिखे गये हैं। आगे कहा गया है कि गर्भाधानादि क्रियाओं की विधि करने में ये मंत्र ‘क्रियामंत्र' कहलाते हैं (४०/७८) तथा विधिपूर्वक